संविदा की निष्फलता//Doctrine of Frustration.

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 प्रश्न  - संविदा की निष्फलता के सिद्धान्त को समझाइये। उदाहरण दीजिए।


Explain the doctrine of Frustration. Illustrate your answer.



OR


'असम्भाव्यता के सिद्धान्त' की विवेचना कीजिए। अपने उत्तर की पुष्टि निर्णीत वादों का हवाला देते हुए कीजिए।


Discuss the 'doctrine of impossibility'. Refer to decided case law on the


point.


OR


"निष्फलता को पक्षकारों में हुए करार के निष्पादन के पूर्व ही समाप्ति की अवधारणा के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।" टिप्पणी कीजिए।


"Frustration may be defined as the premature determination of an agreement between the parties.” Comment.


OR


भारतीय विधि के अन्तर्गत परवर्ती असम्भावित सम्पादन के नियमों की विवेचना


कीजिए।


Discuss the rule of subsequent impossibility of the performance of


contract under Indian Law.


उन परिस्थितियों का वर्णन कीजिए जबकि संविदा को नैराश्यगत कहा जाता है।


Describe the situations when a contract is said to be frustrated.


उत्तर :


OR


निष्फलता का सिद्धान्त


(Doctrine of Frustration )


अंग्रेजी विधि - इंग्लैण्ड में संविदा का उन्मोचन निष्फलता के सिद्धान्त पर आधारित है। इस विषय में अनेक विधिशास्त्रियों द्वारा अनेक मत भी दिये गये हैं। 1863 के पहले सामान्य नियम यह था कि संविदा का कोई पक्षकार अपने दायित्वों का पालन करने के लिए बाध्य था तथा वह अपने दायित्वों से उन्मोचन का दावा इस आधार पर नहीं कर सकता था कि पालन असम्भव हो गया है। टेलर बनाम काल्डवेल, (1863) 3 बी० एण्ड एस0 826 के बाद में माननीय न्यायमूर्ति ब्लैकबर्न ने निर्धारित किया कि उपर्युक्त नियम तभी लागू होगा जबकि संविदा सकारात्मक और पूर्ण हो तथा किसी शर्त के अधीन न हो। इस बाद में प्रतिवादी ने 100 पौंड प्रतिदिन की दर से चार दिन के लिए अपना संगीतहाल तथा बाग वादी को किराये पर देने का करार किया था। वादी उसमें संगीत के चार प्रोग्राम करना चाहते थे। करार होने के बाद जिस दिन प्रोग्राम का पहला दिन होना था, उसके पूर्व हाल आग से जलकर नष्ट हो गया. तथा इसके लिए कोई पक्षकार दोषी नहीं था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि पक्षकारों ने हाल के निरन्तर अस्तित्व के आधार पर संविदा की थी और वह पालन के लिए आवश्यक था। उसके नष्ट हो जाने पर पक्षकार संविदा के पालन से अभिक्षम्य हो गये।


निष्फलता के आधार


(Grounds of Frustration)


न्यायालय निम्नलिखित आधारों पर इस सिद्धान्त को लागू करता है-


1. संविदा की विषय-वस्तु का नष्ट होना (Destruction of the Subject matter)—संविदा करने के पश्चात् यदि उसकी विषय वस्तु नष्ट हो जाती है तो ऐसी संविदा शून्य हो जाती है। इस सम्बन्ध में टेलर बनाम काल्डवेल, (1863) 3 बी० एण्ड एस० 826 इसका एक अच्छा दृष्टान्त है।


2. किसी विशिष्ट घटना का न होना (Non occurrence of a particular state of things) – यदि संविदा के लिए आवश्यक कोई घटना नहीं होती है तो भी संविदा का उन्मोचन हो जायेगा। क्रेल बनाम हेनरी इसका एक अच्छा दृष्टान्त है।


3. पक्षकार की मृत्यु या अयोग्यता (Death or incapacity of the party) – सेवा सम्बन्धी संविदाओं में वचनदाता के मर जाने या उसके असमर्थ हो जाने पर संविदा शून्य हो जाती है।


5. परिस्थितियों में परिवर्तन (Change of circumstances) - यदि परिस्थितियों में


परिवर्तन के फलस्वरूप संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा के पक्षकार अपने


उत्तरदायित्वों से उन्मुक्त हो जायेंगे। परन्तु यदि परिस्थितियों में परिवर्तन के बावजूद पालन


संभव है तो संविदा का उन्मोचन नहीं होगा।


6. युद्ध का होना (War) - युद्धकाल में नागरिकों तथा किसी युद्ध में लगे हुये राज्य के नागरिकों के बीच में की गयी संविदायें अवैध होती हैं। उनका कभी प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता। युद्धकाल में शत्रुओं के साथ किये गये संव्यवहार प्रारम्भ से ही शून्य (void ab initio) होते हैं। बाद में शान्ति स्थापित हो जाने पर भी वे शून्य तथा अप्रवर्तनीय ही रहते हैं। 7. विधि में परिवर्तन (Change in Law) - यदि विधि के परिवर्तन से संविदा का पालन असम्भव हो जाता है तो संविदा का उन्मोचन हो जाता है।


भारतीय विधि (Indian Law) - भारत में उक्त सिद्धान्त पूर्ण रूप से लागू नहीं है, यहां ऐसी संविदायें धारा 32 तथा 56 के तहत नियंत्रित होती हैं। धारा 56 के अनुसार, वह करार, जो ऐसा कार्य करने के लिए स्वतः असम्भव है शून्य है।


ऐसा कार्य करने की संविदा जो कि संविदा करने के पश्चात् असम्भव या किसी अन्य ऐसी घटना के कारण जिसका निवारण प्रतिज्ञाकर्ता नहीं कर सकता था विधिविरुद्ध हो जाती है तब शून्य हो जाती है जबकि वह कार्य असम्भव या विधिविरुद्ध हो जाता है।


Agreement to do impossible Act-An agreement to do an act


impossible in itself is void.


Contract to do act afterwards becoming impossible or unlawful-A contract to do an act which, after the contract is made. becomes impossible or by reason of some event which the promisor could not prevent, unlawful, becomes void when the act becomes impossible or unlawful 

इसके लिए पक्षकार को निम्नलिखित बातें सिद्ध करनी आवश्यक हैं- 1. संविदा का पालन असम्भव हो गया हो


2. असम्भवता किसी ऐसी घटना के कारण है जिसे प्रतिज्ञाकर्ता रोक नहीं सकता था। 3. असम्भवता प्रतिज्ञाकर्ता के द्वारा या उसकी उपेक्षा से नहीं हुई हो।


असम्भवता (Impossibility) - अपालन के बहाने के रूप में असम्भवता, सामान्य नियम के रूप में, कोई भौतिक या विधिक असम्भवता होनी चाहिये न कि केवल वचनदाता की परिस्थितियों तथा योग्यता के सम्बन्ध में कोई असम्भवता । कृत्य केवल वचनदाता के लिए असम्भव नहीं होना चाहिए। बल्कि स्वयं में असम्भव होना चाहिये। न्यायालय को इस बात से पूर्णत: सन्तुष्ट होना चाहिये कि कृत्य भौतिक रूप से असम्भव (Physically impossible) हो गया है। संविदाकृत वस्तुओं का प्रदाय करने में कठिनाई या अधिक मूल्य दिया जाना ही संविदा के पालन को असम्भव नहीं बना सकता।


सत्यव्रत घोष बनाम मुगनीराम, ए० आई० आर० 1954 एस० सी० 44 के मामले में न्यायाधीश बी. सी. मुखर्जी ने कह कहा था कि धारा 56 सकारात्मक विधि का एक नियम प्रतिपादित करती है और मामला पक्षकारों के आशय पर निर्भर नहीं करता है। इस बाद में न्यायालय ने मत व्यक्त किया है कि असम्भवता का अर्थ भौतिक तथा शब्दिक असम्भवता से नहीं लगाया जाना चाहिए। किसी कार्य का पालन केवल भौतिक रूप से ही असम्भव नहीं हो जाता है बल्कि अन्तिम उद्देश्य के पालन की असम्भवता से भी असम्भवता होती है। इस मामले के तथ्य इस प्रकार थे- प्रत्यर्थी कम्पनी ने भूमि विकास के लिए लोक कालोनी संस्था प्रारम्भ की जिसके तहत उसने भूमि अनेक भागों में विभाजित किया और सड़कें, नालियां आदि को पूरा करने का उत्तरदायित्व लिया। अपीलार्थी ने उसमें एक प्लाट खरीदा था। बाद में उस भूमि को जिला कलेक्टर ने रक्षा नियमों के तहत सैनिक उद्देश्य के लिए अभिप्राप्त की। कम्पनी ने करार खत्म कर धन वापस करने के लिए विकल्प दिया। अपीलार्थी ने करार को पूरा करने के लिए कहा तथा वाद दायर किया। कम्पनी ने करार के पालन की असम्भवता का सहारा लिया। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि संविदा का पालन असम्भव नहीं हुआ है। क्योंकि जब भूमि अधिग्रहीत की गई थी तब कार्य को प्रारम्भ नहीं किया गया था अतः उसके रुकने का प्रश्न नहीं उठता है। इसी सिद्धान्त को श्रीमती सुशीला बनाम हरीसिंह, ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 1756 के मामले में अनुमोदित किया गया।


इनर्जी वाचडाग बनाम सेन्ट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन, (2018) 4 एस० सी० सी० (सिविल) 133 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी निप्पादन योग्य संविदा में बहुधा संविदा के पालन में ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है जिन्हें संविदा के पक्षकारों ने संविदा के समय सोचा नहीं था। उदाहरणार्थ कीमतों का असाधारण घटना या गिरना जो कि निष्पादन में सत्यापित बाधा होती है। इससे स्वयं में संविदा से छुटकारा नहीं मिलता है। संविदा का उन्मोचन केवल इसलिए नहीं होता है कि पक्षकारों में से एक के लिए संविदा का पालन दुर्भर हो जाता है।


पालन की असम्भवता के सिद्धान्त का अपवाद (Exception to the Doctrine of Impossibility of performance ) — धारा 56 (3) में उक्त नियम का अपवाद भी दिया गया है जिसके अनुसार जहां कि एक व्यक्ति ने ऐसी कोई बात करने की प्रतिज्ञा की है जिसका असम्भव या विधिविरुद्ध होना वह जानता था या युक्तियुक्त तरीके से जाना जा सकता था और प्रतिज्ञाग्रहीता नहीं जानता था वहाँ जो कोई हानि ऐसे प्रतिज्ञाग्रहीता को उस वचन के अपालन से हो, उसके लिए ऐसा प्रतिज्ञाकर्ता ऐसे प्रतिज्ञाग्रहीता को प्रतिकर देगा।

उदाहरण के लिए, के जो पहले से ही ग से विवाहित है और उस विधि द्वारा जिसके कि वह अध्यधीन है, बहुपत्नी करने से निषिद्ध है, ख से विवाह करने की संविदा करता है। उसकी प्रतिज्ञा के अपालन से ख को हुई हानि के लिए क को उसे प्रतिकर देना होगा।

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