अरस्तू के आदर्श राज्य का सिद्धांत// Aristotle's theory of the ideal state

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Hello/ नमस्कार दोस्तो PW diaries में आपका एक बार फिर स्वागत है और आज हम बात करते हैं, पश्चिमी राजनीतिक विचार के अंतर्गत अरस्तु के राज्य से संबंधित विचारों (Aristotle State Thoughts) के बारे में। इस Post में हम जानेंगे राज्य की उत्पत्ति कैसे हुई ? साथ ही साथ अरस्तु के राज्य संबंधी सिद्धांत की प्रमुख विशेषताओं के बारे में ।


   


    अरस्तू का आदर्श राज्य

    अरस्तू ने भी प्लेटो की भाँति अपने ग्रन्थ 'पॉलिटिक्स' के अन्तिम चरणों में 'राजनीतिक आदर्शों तथा श्रेष्ठ एवं सुखी जीवन का विवेचन किया है। अरस्तू तीन प्रकार के शुभों की कल्पना करता है- बाहन शुभ, शारीरिक शुभ तथा आत्म शुभ अनुभव यह सिद्ध करता है कि इन हितो अथवा शुभों में आत्मा के शुभ की प्राथमिकता रहती है। साहस, विवेक एवं अन्य प्रकार के नैतिक गुण आत्मिक शुभ के अभिन्न तत्व हैं। इस आधार पर अरस्तू का निष्कर्ष है कि “राज्यों तथा व्यक्तियों दोनों ही के लिए जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग शुभतापूर्ण जीवन है।" अरस्तू के विचारानुसार आदर्श संविधान वह है जिसमें दार्शनिक वृत्ति तथा व्यावहारिक गुणों से सम्पन्न सभी प्रकार में लोगों को ऐसे अवसर मिलें जिससे कि वे अपने श्रेष्ठतव को प्राप्त कर सकें तथा सुखी जीवन जी सकें।


    आदर्श राज्य की विशेषताएं –


    1. नैतिक स्वरूप –

     अरस्तु द्वारा प्रतिपादित आदर्श राज्य का स्वरूप भौतिक होने के साथ-साथ नैतिक भी है अर्थात् अरस्तु के अनुसार राज्य द्वारा व्यक्ति के भौतिक उत्थान का लक्ष्य उसका नैतिक दृष्टि से उत्थान करना है, उसे सद्गुणी चरित्र का बनाना है। अरस्तु के अनुसार उत्तम जीवन नैतिक जीवन के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता।


    2. मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन – 

    अरस्तु प्लेटो की तरह एक अति आदर्शवादी नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी है। उसने अपनी हर सिद्धांत का प्रतिपादन इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किया है। व्यावहारिक होने के नाते इसलिए उसने मध्यम मार्ग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। अरस्तु के अनुसार मध्य वर्ग द्वारा प्रशासित राज्य अधिक सुरक्षित है। जिस राज्य में 2 वर्ग ही विद्यमान है- अत्यधिक धनी और अत्यधिक निर्धन वहां मित्रताभाव और भाईचारा की भावनाएं उत्पन्न नहीं हो सकते। ऐसा राज्य हमेशा संघर्षों में गिरा रहेगा।


    3. विधि का शासन – 

    अरस्तु का आदर्श राज्य हमेशा एक संवैधानिक किया विधिनुसार प्रशासित राज्य है। अरस्तु के अनुसार प्रत्येक अच्छे या आदर्श राज्य में अंतिम संप्रभु विधि होनी चाहिए बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी नहीं। वह कहता हैं “व्यक्ति के शासन की तुलना में विधि का शासन श्रेष्ठ होता है, क्योंकि विधि ऐसा विवेक है जिस पर व्यक्ति की इच्छा का प्रभाव नहीं पड़ता”


    आदर्शराज्य के आवश्यक तत्व


    1. जनसंख्या:-

    आदर्श राज्य के लिए अरस्तू इतनी जनसंख्या को आवश्यक मानता है जो कि आकार अथवा मात्रा में न हो और न ही कम राज्य की आबादी इतनी पर्याप्त होनी चाहिए जिसमें कि राज्य के नागरिकता के कार्यों का निष्पादन भली प्रकार से हो सके। राज्य के सिविल कार्य यह निर्धारित करते हैं कि राज्य की आबादी कितनी होनी चाहिए। अधिक आबादी राज्य की महानता का परिचायक नहीं होती। अतः अरस्तू की सिविल कार्य को करने में एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप में पहचान सकें तथा राज्य को आत्मनिर्भर बने रहने में सहयोग दे सकें।


    2. राज्य का भू-प्रदेश:-

    अरस्तू के अनुसार राज्य का भू-प्रदेश भी जनसंख्या के समान न हो तो बहुत कम हो और न ही अत्यधिक बड़ा । राज्य की भूमि इतनी हो जिस पर कि नागरिक अवकाश का जीवन बिता सकें नागरिकों के भरण- पोषण से सम्बन्धित इतनी फसल उस भूमि पर उत्पन्न हो, जिससे कि वे अपना जीवन आत्म निर्भरता, मित्राचार तथा उदारता के साथ जी सकें। भूमि के सर्वेक्षण के आधार पर राज्य की सुरक्षा का प्रबंध किया जा सकता है। नगर की आयोजना की जा सकती है तथा आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से तथा उसके आस-पास के इलाकों के साथ संबंधों का निर्धारण किया जा सकता है।


    3. राज्य की सामाजिक संरचना:- 

    अरस्तू आदर्श राज्य के आवश्यक तत्वों में राज्य की समुचित सामाजिक संरचना को भी एक आवश्यक तत्व मानता है। वह राज्य की संरचना के दो प्रमुख आधार मानता है। 'समाकलन अंग' तथा उनके 'सहायक सदस्य'; वह नागरिकों को समान अंग' के रूप में मानता है। दासो और अन्य सेवाओं को करने वा कृषकों तथा औजार इत्यादि बनाने वालों को वह सहायक सदस्यों' के नाम से पुकारता है। नागरिक राज्यों के कार्यों में भाग लेते हुए श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करते है। सहायक सदस्य उस श्रेष्ठ जीवन की सुविधओं और सेवाओं की व्यवस्था करते हैं। राज्य की संरचना के इन दोनों अंगों द्वारा सेवाओं को समाज के लिए प्रदान किया जाना आवश्यक है। ये सेवाएं इस प्रकार है- कृषि, कला एवं शिल्प, राज्य की सुरक्षा, भू-स्वामित्व, सार्वजनिक पूजा तथा नागरिक एवं राजनैतिक जीवन की सेवा। आदर्श राज्य की सामाजिक संरचना इतनी सक्षम हो कि जीवन की इन आवश्यकताओं की पूर्ति उसकी संस्थाओं द्वारा की जा सके। इन सेवाओं की पूर्ति के लिए अरस्तू ने यहां तक भी निश्चित किया है कि कौर सी सेवा किसके द्वारा निष्पादित की जायेगी।


    4- आदर्श राज्य की शिक्षा व्यवस्था:- 

    प्लेटो की भाँति अरस्तू की भी यह मूल धारणा है कि शिक्षा वह उचित साधन है जिसके द्वारा नागरिकों को विवेकशील बनाया जाता है तथा उनके स्वभाव में सदगुणों के जीवन के आदर्शों के अनुसार ढालने की व्यवस्था है। अरस्तू प्लेटो की भाँति नागरिकों तथा शासकों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा योजना प्रस्तुत नहीं करता अपितु एक ही प्रकार की शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करता है। उसकी यह धारणा है कि सभी व्यक्ति समाज में एक समान स्वतन्त्र नागरिक है। उसकी शिक्षा प्रणाली अवश्य ही आयु के आधार पर व्यक्तियों के भेद को स्वीकार करती है। उसकी मान्यता है कि बाल्यवस्था के लोगों के लिए तदनुकूल शिक्षा हो तथा प्रौढ़ो के लिए उनकी आयु के अनुसार शिक्षा हो। समाज के बड़े लो शासन के कार्यों से जुड़े रहते है किन्तु जो तरूण है वे शासनाधीन रहते हैं। आज के तरूण ही कल के शासक होगें। अतः उन्हें अपने स्वतन्त्र राज्य की आज्ञाओं का पालन करना सीखना आवश्यक है। संक्षेप में, शिक्षा का उद्देश्य 'उत्तम नागरिक' तथा 'उत्तम व्यक्ति' का निर्माण करना है। अरस्तू सभी नागरिकों के लिए एक समान शिक्षा योजना का स्थापना करना आवश्यक है। स्पष्ट है कि अरस्तू शिक्षा प्रणाली को राज्य के नियन्त्रण में रखने के पक्षपाति है। नागरिकों को जीवन उसके स्वयं के जीवन तक ही सीमित रहता है अपितु राज्य के अन्य सदस्यों से जुड़ा रहता है। इस सामाजिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए अरस्तू स्पार्टा की राज्य द्वारा नियंत्रित शिक्षा पद्धति का समर्थन अपने शिक्षा सिद्धान्त में करता है।


    5- विधि के शासन की श्रेष्ठता:- 

    अरस्तू की दृष्टि में व्यक्ति के शासन की अपेक्षा विधि का शासन सदैव श्रेष्ठ रहता है। विधि का शासन तथा समुचित व्यक्तिगत सम्पत्ति अरस्तू के आदर्श राज्य के आधार स्तम्भ है। मध्यम वर्ग की श्रेष्ठता के साथ ही अरस्तू विधि के शासन की श्रेष्ठता को भी आदर्श राज्य का आवश्यक तत्व मानता है। अरस्तू प्लेटो की विधि से मुक्त दार्शनिक शासन की धारणा को दोषपूर्ण मानता है।


    निष्कर्ष 

    संक्षेप में, अरस्तू द्वारा प्रस्तुत आदर्श राज्य की यही रूप रेखा है। अरस्तू के आदर्श राज्य की धारणा का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि उसका चिन्तन केवल व्यवहारपरक ही नहीं, अपितु आदर्श तत्वों से भी मुक्त होता है। यही आदर्श तत्वों की समानता है जो प्लेटो और अरस्तू को, उनके विचारों में कई प्रश्नों पर असामानता होते हुए भी, उन्हें एक धरातल पर लाकर खड़ा कर देती है। दोनों ही विचारों को लक्ष्य यही कि ऐसे आदर्श राज्य की खोज की जाय जो व्यक्ति को श्रेष्ठ नैतिक जीवन की उपलब्धि करा सकें।

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    यह लेख  लखनऊ यूनिवर्सिटी , लखनऊ से बी.ए एल.एल.बी कर रहे छात्र  Justin Marya द्वारा  कई वेबसाइट की मदद से लिखा गया है।

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