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प्रस्तावना

इसके पूर्व ब्लॉग में हमने यह अध्ययन किया है किया है कि किस प्रकार से उस समय की सामाजिक और राजनीतिक जीवन में अस्थिरता से प्लेटो बहुत व्यथित था | इस स्थिति से अपने राज्य को उबारने के लिए एक जिम्मेदार चिन्तक के रूप में एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक ढांचा प्रस्तुत करता है | जिसमे वह आत्मा के तीन तत्वों के आधार पर समाज में तीन वर्गों की बात करता है जो अपनी आत्मा में पाए जाने वाले प्रधान तत्व के आधार पर कार्य करेंगे | इस प्रकार से उसने शासक सैनिक और व्यावसायिक वर्ग की बात की। जहा शासक के एक दार्शनिक राजा बनाने लिए एक व्यापक शिक्षा योजना प्रस्तुत की तो दूसरी तरफ वह किसी भी प्रकार के आकर्षण से मुक्त हो इसलि साम्यवादी सिद्धांत भी दिया है जिस्मने राजा के पास न तो अपनी कोई संपत्ति होगी और न ही कोई परिवार जिसके कारण वह विना किसी आकर्षण के अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन निर्लिप्त भाव से करेगा | परन्तु जब वह इस प्रकार के राज्य की स्थापना में असफल रहा तब उसने द्वितीय आदर्श राज्य अर्थात कानून पर आधारित राज्य का सिद्धांत अपनी पुस्तक द लाज में दिया है।


इस  ब्लॉग में हम गुरू शिष्य की महान परम्परा की एके महत्वपूर्ण कड़ी अरस्तू के के सामाजिक और राजनीतिक विचारों का अध्ययन करेंगे और इसमें यह भी अध्ययन करेंगे कि किस प्रकार से वह सर्वप्रथम तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग कर शासन व्यवस्था का अध्ययन कर अध्ययन की वैज्ञानिक परम्परा की शुरूआत सामाजिक विज्ञानों में करता है | इसके साथ - साथ इस इकाई में हम राज्य की उत्पत्ति, स्वरूप, दासता और नागरिकता, विधि और न्याय सम्बन्धी विचारों के अध्ययन करने के साथ क्रान्ति सम्बन्धी विचारों के अध्ययन और आदर्श राज्य के सम्बन्ध में भी अध्ययन करेंगे।


उद्देश्य


इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त हम अरस्तू के अनुसार -


1. राज्यकी उत्पत्ति, स्वरूप को जान सकेंगे।


2. अरस्तू के दासता और नागरिकता सम्बन्धी विचार को जान सकेंगे। 3. संविधान के सम्बन्ध में विचार को जान सकेंगे।


. कुटुम्ब तथा सम्पत्ति सम्बन्धी विचार के बारे में जान सकेंगे। 4.


5. विधि और न्याय सम्बन्धी विचार के बारे में जान सकेंगे |


6. क्रान्ति सम्बन्धी विचार के सम्बन्ध में जान सकेंगे |


7. आदर्श राज्य के बारे जान सकेंगे।


3. 3 अरस्तू के विचारों का वैज्ञानिक स्वरूप


अरस्तू के माता पिता प्रकृति की वैज्ञानिक खोज से प्रभावित थे। अरस्तू के पिता एक चिकित्सक थे उनकी कार्यशैली में वैज्ञानिक विचारों के बीच विद्यमान थे। अतः अरस्तू को पैतृक विरासत में वैज्ञानिक स्वभाव प्राप्त हुआ। ऐसे वैज्ञानिक स्वभाव की दृष्टि से उसने जीवन शास्त्र तथा राजनैतिक का विज्ञानिक पद्धति अपना कर अध्ययन किया। अरस्तू के विचारों का जब हम अध्ययन करते है तो पाते है कि उसने राज्य की बुराईयों के कारणों को ठूंठना, उन्हें दूर करने के उपयों का सुझाव देना, तथ्यों का संग्रह एवं उनका वर्गीकरण और उनकी तथा उन तथ्यों के आधार पर अपने निष्कर्षों को स्थापित करना, अनेक ऐसे उदाहरण है जो यह सिद्ध करते है कि तुलना करना अरस्तू की अध्ययन पद्धति वैज्ञानिक थी। अतः अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि अरस्तू की अध्ययन-पद्धति अनुभवमूलक थी जो उसे वंशागत प्रभाव से मिली थी।


अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि अरस्तू ने यूनानी राजनीति एवं राजनीतिक संस्थाओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया था। अरस्तू ने यूनान के 158 राज्यों के संविधानों की आगमनात्मक पद्धति से तथ्यों को एकत्र कर उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। और संविधानों की तुलना करके उनके गुण एवं दोषों का विवेचन किया था। इस प्रकार हम कह सकते है कि अरस्तू की अध्ययन पद्धति एक वैज्ञानिक थी।




3. 4 अरस्तू का राज्य सिद्धान्त


अरस्तू अपने विचारों के आधार पर यह प्रतिपादित करता है कि राज्य एक ऐसा समुदाय या संघ है जिसका अपना एक विकास क्रम होता है परिवार मिलकर ग्रामों का निर्माण करते है और जब ग्राम के समुदाय बनते है तो राज्य की उत्पत्ति होती है। राज्य "समरूप व्यक्तियों के श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति के लिए संस्था है।” अरस्तू के अनुसार परिवार मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताओं की और ग्राम उसकी आर्थिक व धार्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन है।


3.4.1 राज्यः उत्पत्ति, स्वरूप तथा उद्देश्य


1. राज्य एवं नैसर्गिक मानवीय संस्था है- अरस्तू सोफिस्ट विचारकों के विपरित राज्य को एक नैसर्गिक संस्था मानता है। अरस्तू कहता है प्रकृति ने मनुष्य को विवके एवं संवाद की शक्ति प्रदान की है। विवेक और संवाद के कारण मनुष्य, पशु-पक्षियों से भिन्न है इससे इतर वह समुदायों का निर्माण करता है। इस प्रकार कुटुम्ब प्राणियों की प्रथम नैसर्गिक संस्था है। कुटुम्ब से ग्राम और ग्रामों से राज्य बनता है। इस प्रकार राज्य की आधारभूत संस्थाऐं नैसर्गिक है, अतः उससे निर्भित राज्य भी एक नैसर्गिक संस्था है। राज्य की नैसर्गिकता का प्रमाण यह है कि उसकी उत्पत्ति जीवन के लिए हुई तथा सुखी जीवन के लिए इसका अस्तित्व अभी भी बना हुआ है। हम यह भी मान सकते है कि राज्य इसलिए भी एक नैसर्गिक संस्था है क्योंकि वह मनुष्य स्वभाव अन्तर्निहित है।


राज्य समूहों का समूह है:- अरस्तू की मान्यता है राज्य की दूसरी विशेषता है कि यह समुदायों का समुदाय है। अरस्तू कहता है कि राज्य एक विकसित संस्था है। वह कहता है कि नर-नारी से कुटुम्ब, कुटुम्ब से ग्राम तथा ग्रामों से राज्य का विकास होता है। राज्य विविध संस्थाओं से निर्मित एक संस्था है। यह परिवार और ग्राम जैसे मुद

से मिलकर बना हुआ एक समुदाय है। अरस्तू के लिए राज्य का स्वरूप उसकी बहुलता से है। इस रूप में अपने


विकसित रूप में राज्य समुदायों का एक समुदाय है।


राज्य का नैतिक उद्देश्य


अरस्तू के अनुसार राज्य का राज्य का मूल उद्देश्य व्यक्ति के जीवन की नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना है अतः इसका नैतिक उद्देश्य है। यद्यपि राज्य का विकास जीवन की भौतिक व सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ है, किन्तु उसका निरन्तर अस्तित्व इसलिए बना है जिससे कि राज्य में मनुष्य के 'श्रेष्ठ जीवन' की आवश्यकताओं की पूर्ति होते रहे।" अरस्तू कहता है कि राज्य मनुष्य की सम्पूर्ण प्रकृति की पूर्ति करता है, विशेषतः उसकी प्रकृति के सर्वोच्च पक्ष है। राज्य एक ऐसी संस्था है जिसके पास वे सारे साधन उपलब्ध है जिससे कि मनुष्य का सम्पूर्ण एवं स्वतंत्र नैतिक विकास होता है। राज्य की अस्तित्व मनुष्य के श्रेष्ठ जीवन के लिए होता है। इस प्रकार अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि राज्य का उद्देश्य नैतिक जीवन की आवश्यकता की पूर्ति करना है।


व्यक्ति की अपेक्षा राज्य की अग्रताः- राज्य के स्वरूप के बारे में अरस्तू कहता है कि “राज्य व्यक्ति की पूर्ववर्ति संस्था है। इस धारणा का स्पष्टीकरण करते हुए वह लिखता है कि राज्य एक सम्पूर्णता है, व्यक्ति जिसका एक अंग मात्र है। इसका अस्तित्व "व्यक्ति से अग्र (पूर्व) है।" अरस्तू राज्य को सावयवी संस्था मानता है और व्यक्ति इस शरीर का एक अंग मात्र है। यदि सम्पूर्ण शरीर नहीं है तो असके अगं हाथ अथवा पैर का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होगा। यदि हम तार्किक दृष्टि से विचार करे तो अंग सम्पूर्ण की पूर्व कल्पना करता है। पहले सम्पूर्ण की कल्पना होगी तभी अंग की कल्पना की जा सकती है। अतः राज्य व्यक्ति पूर्ववर्ती है।


राज्य आत्मनिर्भर संस्था है:- अरस्तू की मान्यता है कि “राज्य एक आत्म निर्भर संस्था है।" वह राज्य को आत्म- पर्याप्ति की सर्वोच्च संस्था मानता है। अतः यह परिपूर्ण समाज है। उसका मानना है कि राज्य आर्थिक नैतिक, मनोवैज्ञानिक तथा सभी दृष्टि से स्वतन्त्र संस्था है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पूर्वता को प्राप्त करता है। वह राज्य की क्रियाओं का भागीदार बनकर उस आत्म-निर्भरता का भागीदार बनता है। इस प्रकार हम कह सकते है यही राज्य का वास्तविक प्रायोजन होता है। मनुष्य के जीवन को कोई भी भौतिक तथा नैतिक आवश्यकता नहीं जिसकी कि पूर्ति राज्य के द्वारा तथा राज्य के अन्तर्गत न की जा सकें। अतः अरस्तू को राज्य को इस प्रकार परिभाषित किया है कि यह कुटुम्बों और ग्रामों को समुदाय है जिसका अस्तित्व "सुखी और आत्म-निर्भर जीवन के लिए है।


3.5 दासता सम्बन्धी अरस्तू के विचार


इतिहास का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि प्राचीन यूनान में दास प्रथा का प्रचलन था। और अरस्तू ने दा सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत करता है। अरस्तू परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता और सन्तान तथा स्वामी और दास मानता है। अरस्तू दास को परिवार का अभिन्न अंग मानता है। दास कौन है? इस संबंध में अरस्तू बताता है कि जो व्यक्ति प्रकृति से अपना नहीं अपितु दूसरे का है लेकिन फिर भी मनुष्य है, वह प्रकृति से दास है और हम उसे जो कि मनुष्य तो है फिर भी दूसरे के कब्जे में है, उसे हम दूसरे के कब्जे की वस्तु कहेगें और जो वस्तु कब्जे की है उसकी परिभाषा यह है कि वह कार्य साधन है, ऐसा कार्य का साधन जो कब्जाधारी से भिन्न है।" दास कौन है? को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-

जो व्यक्ति अपनी प्रकृति के कारण स्वयं का नहीं अपितु दूसरे का है, फिर भी मनुष्य है, वह स्वभावतः दास है। 1.


2. दास का गुण बताते हुए वह कहता है कि वह व्यक्ति जो मनुष्य होते हुए भी सम्पत्ति की एक वस्तु है और जो दूसरे के कब्जे में रहता है, वह दास है।


3. तीसरा जो दूसरे के कब्जे की वस्तु है जो कार्य का साधन है, और जिसे वस्तु के कब्जाधारी से पृथक किया जा सके, वह दास है।


प्रथा के समर्थन में तर्क | अरस्तू ने दासता के ओचित्य में विभिन्न प्रकार के तर्क है।


1. दासता नैसर्गिक है


अरस्तू कहता है कि दासता नैसर्गिक है। प्रकृति ने ही मनुष्यों को इस प्रकार बनाया है कि उसमें दो वर्ग का निर्माण होता है स्वामी और दास। अरस्तू बताता है कि जा व्यक्ति शासन चलाने की योग्यता रखते है और आदेश देने वाले होते है उन्हें स्वामी कहते है। और जो उन आदेशों का पालन करते है उन्हें दास कहते है। अरस्तू दासता को इस नैसर्गिक नियम के आधार पर सही मानता है। क्योंकि इसमें श्रेष्ठ व्यक्ति हमेशा निकृष्ट व्यक्ति पर शासन करते हैं। दासता को नैसर्गिक बताने के लिए अरस्तू प्रकृति के सर्वव्यापी सिद्धान्त लेता है।


2- दासता स्वामी और दास दोनों के लिए उपयोगी हैं


अरस्तू मानता है कि दासता स्वामी और दास दोनों के लिए हितकर है। अरस्तू की मान्यता है कि स्वामी का महत्वपूर्ण कार्य राजनिती है। नगर के राजकार्यों में भाग लेकर नैतिक उत्थान में कार्य करना है और कार्य के लिए स्वामी का अवकाश चाहिए होता है। और स्वामी यह कार्य अवकाश तभी ले सकता है जबकि दास उसके घर के कार्यों के लिए श्रम करें। उसी अवकाश के समय में स्वामी नागरिक जीवन का भागीदार बनकर अपने बौद्धिक तथा नैतिक जीवन की उपलब्धि के लिए करता है। और दास भी स्वामी साहचर्य में रहकर सदगुणों को सीखता है। अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, स्वामी के सदगुण की छत्रछाया में दास लाभ को प्राप्त करता है। इस प्रकार दासता स्वामी और दास दोनो के लिए लाभकारी सिद्ध होती है।


3. दासता प्राकृतिक नियमानुकूल है


दासता की प्रामाणिकता की पुष्टि अरस्तू ने प्रकृति के शासन 'शामित नियम' के आधार पर भी की है। वह मानता है कि प्रकृति में हमेशा 'शासक' तथा 'शसित' पदार्थ होते है। उच्च का निम्न पर हमेशा शासन रहता है। इस प्रकार सामाजिक जगत में स्वामी का दास पर शासन प्रकृति नियमाकूल है।


दास कुटुम्ब की सम्पत्ति है | अरस्तू की मान्यता है कि सम्पत्ति दो प्रकार की होती हैं-


(1) सजीव सम्पत्ति। (2) निर्जीव सम्पत्ति। घर की वस्तुऐं कुटुम्ब की निर्जीव सम्पत्ति है किन्तु दास कुटुम्ब की सजीव सम्पत्ति होती है। सम्पत्ति के ये दोनों ही प्रकार जीवन के लिए आवश्यक है। अतः दास कुटुम्ब की सजीव सम्पत्ति के रूप में पारिवारिक जीवन के लिए आवश्यक है।

दासता के प्रकार:- अरस्तू दासता के दो प्रकार बताता है- नैसर्गिक दासता तथा कानूनी दासता। वे व्यक्ति जो प्रकृति से ही निर्बुद्धि तथा शारीरिक शक्ति प्रधान है, वे नैसर्गिक दास है। वे व्यक्ति जो युद्ध में बन्दी बना लिये जाता है और जिन्हें दास बना लिया जाता है, यह कानूनी दासता है। इस प्रकार प्रकृति और शक्ति द्वारा दास बनाये जाते है। कानूनी दासता के सम्बन्ध में अरस्तू के विचार है कि यूनानियों को विजित दास नहीं बनाया जाए। केवल बर्बर जाति के लोगों को ही कानूनी दास बनाया जाए।


3.6 नागरिकता सम्बन्धी विचार


अरस्तू ने प्लेटो के विपरित नागरिकता को अपने राजनीतिक विश्लेषण का केन्द्र बनाया। राजनैतिक पद हासिल करना एक स्वाभाविक रूझान था। संवैधानिक सरकार के कारण लोग बिना गड़बड़ी के राजनैतिक पद हासिल कर सकते थे।


अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों की सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नागरिकता निवास स्थान से यह तय नहीं होती थी क्योंकि स्थानीय बाहरी और दास नागरिको के साथ रहते हुए भी नागरिक नहीं थे। न ही नागरिकता सामाजिक अधिकारों में हिस्सेदारी से परिभाषित होती थी। नागरिक वह था जिसे विचार विमर्श या न्यायिक पदों में हिस्सेदारी हासिल थी और जो अपने राजनैतिक अधिकारों का प्रभावशाली प्रयोग कर सकता था। नागरिक को संवैधानिक अधिकार भी प्राप्त थे।


अरस्तू की मान्यता थी कि बच्चे, बूढ़े और स्त्रियां नागरिक नहीं हो सकते थे क्योंकि वे क्रमशः अपरिपक्व कमजोर और तर्कबुद्धि विहिन थे। प्लेटो के सामान अरस्तू समझते थे कि नागरिकता एक विशेषाधिकार है और उत्तराधिकार में पाया जाता है। नागरिकों को छोटे और सुगठित पोलिस में रहना चाहिए। प्लेटो का पाँच हजार नागरिकों का संगठन काफी बड़ा था क्योंकि उसके लिए असीमित जगह की आवश्यकता थी। छोटे समुदाय में सभी नागरिक एक-दूसरे को जानते, विवादों का निपटारा करते और क्षमता के अनुसार उचित पदों को बटवारा कर सकते थे।


अरस्तू का अच्छा नागरिक संविधान का पालनकर्ता है, जिम्मेदारी वहन करने लायक उसके पास समय होता है, विविध दिलचस्पियाँ होती है और निःस्वार्थ सहयोगी जीवन के गुण होते है। वे नागरिक को "जनमामलों में हिस्सेदारी की मित्रता मानते है। यह अधिकार निश्चित वर्ग के बाहर दूसरों को नहीं मिल सकता था। वास्तव में यूनानी नागरिकता अधिकारों पर उतनी आधारित नहीं थी जितनी कि जिम्मेदारियों पर


3.7 संविधान के सम्बन्ध में अरस्तू के विचार


अरस्तू की संविधान की धारणा आधुनिक संविधानों की धारणाओं से अधिक व्यापक है। अरस्तू 'संविधान' को राज्य का निर्धारक तत्व मानता है। संविधान का स्वरूप ही है जो राज्य के स्वरूप की पहचान कराता है। संविधान को परिभाषित करते हुए अरस्तू लिखता है कि "संविधान सामान्यतः राज्य में पदो के संगठन की एक व्यवस्था है, विशेषतः ऐसे पद की सभी मुद्रों में सर्वोच्च हैं।"


संविधान का वर्गीकरण:- अरस्तू ने संविधान के दो वर्गीकरण को मान्यता दी है। (1) शासकों की संख्या जिनके हाथो में शासन की सत्ता रहती है, (2) शासन का उद्देश्य क्या है? पहले आधार पर संविधान का वर्गीकरण करते हुए अरस्तू बताता है कि शासन की सत्ता एक व्यक्ति, थोड़े से व्यक्ति के शासन को राजतंत्र डवदंतमीलद्ध थोड़े

व्यक्तियों के शासन को 'अल्पतन्त्र' ; तपेजवबंतंबलद्ध तथा अधिक लोगों के शासन को 'पालिटी' चंसपजल कहता है। संविधान के इन तीनों प्रकारों को आधार 'शासकों की संस्था' है।


किन्तु अरस्तू इस आधार को आकास्मिक मानता है। वर्गीकरण का वास्तविक आधार शासकों को उद्देश्य क्या है? को मानता है। शासन यदि भले ही एक व्यक्ति थोड़ से व्यक्ति अथवा अधिक व्यक्तियों का हो, सार्वजनिक हित से प्ररित होकर कार्यशील है, अरस्तू उसे 'संविधान' मानता है। निजी स्वार्थ से प्ररित होकर किया गया शासन कभी ठीक नहीं हो सकता। अरस्तू ऐसे संविधान को विकृत संविधान की संज्ञा देता है। तद्नुसार सामान्य हित से प्ररित एक व्यक्ति के शासन को अरस्तू 'राजतन्त्र' थोड़े से व्यक्तियों के शासन को 'अल्पतन्त्र' तथा अधिक लोगों के शासन को पॉलिटी अर्थात 'संयत लोकतन्त्र' बताता है। दूसरी कोटी 'विकृत संविधानों की है।' जब शासक 'निजी हित' से प्रेरित होकर शासन करते है तब तक एक व्यक्ति विकृत शासन निरंकुशतन्त्र, थोड़े से व्यक्तियों का विकृत शासन 'धनिकतन्त्र' और अधिक लोगों का अधिक निर्धन लोगों के हितार्थ विकृत शासन लोकतन्त्र कहलाता है। संख्या के आधार पर तथ उद्देश्य के आधार पर किये गये संविधानों के वर्गीकरण को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-


1- शासकों की संख्या


2- उद्देश्य के अनुसार


'सार्वजनिक हित के लिए सही शासन


निजी स्वार्थ के लिए विकृत


शासन


एक व्यक्ति का शासन


राजतन्त्र


थोड़े व्यक्तियों का शासन


कुलीतन्त्र


बहुसंख्यक व्यक्तियों का शासन


पॉलिटी


निरंकुशतन्त्र


धनितन्त्र


लोकतन्त्र


(भीड़तन्त्र)


शुद्ध शासन के तीन प्रकार


उपयुक्त शारणी से स्पष्ट होता है कि "सार्वजनिक हित में किये जाने वाला शासन 'सही' अथवा शुद्ध है। यह शासन जब एक व्यक्ति द्वारा किया जाता है उसे अरस्तू “राजतन्त्र' कहता है। थोड़े व्यतियों द्वारा किया गया 'शुद्ध' शासन अल्पतन्त्र है तथा अधिक संख्यकों द्वारा सार्वजनिक हितार्थ किया गया शासन पॉलिटी है। इस आधार पर शुद्ध संविधान के ये ती प्रकार है- राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र, तथा पॉलिटी |


विकृत शासन के तीन प्रकारः- उपयुक्त तीनों प्रकार के शासन निजी स्वार्थों की पूर्ति के समय-समय पर विकृत रूप धारण कर लेते है। इस प्रकार राजतन्त्र का विकृत रूप निरंकुशतन्त्र, कुलीनतन्त्र का विकृत रूप धनिकतन्त्र तथा सयंत लोकतन्त्र (पॉलिटी) का विकृत रूप भीड़त का अर्थात लोकतन्त्र हो जाता है। निष्कर्ष रूप से यह कह जा सकता है कि अरस्तू ने कुल 6 प्रकार के शासनों का वर्णन किया है जिनमें अपने उद्देश्य के अनुसार तीन शुद्ध तथा तीन विकृत प्रकार हैं।

3. 8 श्रेष्ठ व्यावहारिक संविधान


अरस्तू संविधानों को 6 प्रकार में वर्गीकृत करते हुए व्यावहारिक दृष्टि से श्रेष्ठ संविधान खोजता है। मनुष्य के स्वभाव को ध्यान में रखते हुए अधिकांश राज्यों के लिए व्यावहारिक संविधान की खोज करना अरस्तू के चितंन का आधार है। अरस्तू के अनुसार "राजनीतिक समाज का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप वह है जिसमें सत्ता का निवास मध्यवर्ग में हो । "अरस्तू की मान्यता है कि श्रेष्ठता मध्यमान में पायी जाती है लेकिन इसके साथ शर्त है कि समाज में मध्यवर्ग काफी बड़ा है। अतः न तो धनी लोगों का शासन ही उचित है और न ही अत्यधिक निर्धन वर्ग के लोगों का । श्रेयस्कर राज्य इन दोनों के मध्य का है जिसे अरस्तू पॉलिटी के नाम से सम्बोधित करता है। पॉलिटी का शासन मध्यवर्ग पर आधारित है। उसके विचारानुसार 'पॉलिटी का शासन संयत तथा मध्यममार्गी है। अतः यह व्यावहारिक भी है और श्रेष्ठ भी । संयत लोकतन्त्र को अरस्तू वर्गतन्त्र और भीड़तन्त्र का मध्यमान भी मानता हैं ऐसे गुणों से युक्त मध्यवर्ग पर आधारित 'पॉलिटी' को अरस्तू सामान्य रूप से व्यावहारिक श्रेष्ठ संविधान स्वीकार है।


3. 9 अरस्तू के कुटुम्ब तथा सम्पत्ति सम्बन्धी विचार


अरस्तू मानता है कि कुटुम्ब एवं सम्पत्ति को राज्य की एकता के नाम पर समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसा कि प्लेटों ने अपनी साम्यवाद की योजना में किया है। अरस्तू प्लेटों के कुटुम्ब और सम्पत्ति सम्बन्धी विचारों की आलोचना करते हुए कहता है कि कुटुम्ब तथा निजी सम्पत्ति व्यक्ति के लिए परम आवश्यक है। अरस्तू के कुटुम्ब और सम्पत्ति विणयक विचारों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उसका वैचारिक दृष्टिकोण व्यक्तिवादी एवं मानवीय आवश्यकताओं को समझने वाला यथार्थवादी दृष्टिकोण है।


परिवार सम्बन्धी विचारः- अरस्तू परिवार को मनुष्य की नैसर्गिक संस्था मानता है जिसके द्वारा उसके जीवन की नितान्त प्रारम्भिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होती है। परिवार में पति, पत्नी सन्तान तथा दास सम्मिलित है। परिवार का चौथा आवश्यक तत्व 'अर्जन' है। इन तत्वों के अभाव में परिवार की कल्पना की जा सकती है। यद्यपि कुटुम्ब व्यक्ति के भौतिक जीवन की आधारशिला है तथापि उसका प्रबन्ध एक नैतिक कला है तथा जिसका उद्देश्य परिवार के सदस्यों की नैतिक श्रेष्ठता को प्राप्त करना है। अरस्तू की मान्यता है कि यदि परिवार का साम्यवादीकरण करके उसे छिन्न-भिन्न किया जाता है तो उसके सदस्यों की नैतिक श्रेष्ठता की पहली पाठशाला ही नष्ट हो जायेगी। इस आधार पर अरस्तू प्लेटो की आलोचना करता है कि उसके साम्यवाद की योजना परिवार को नष्ट करके व्यक्ति के जीवन की प्राथमिक नैतिक संस्था तथा उसका नैतिकरण करने वाली प्रथम संस्था को नष्ट कर देती हैं।


सम्पत्ति के साम्यवाद के विरूद्ध अरस्तू के विचार:- अरस्तू प्लेटो के सम्पत्ति के साम्यवाद का योजना का भी आलोचक है। अरस्तू सम्पत्ति के सार्वजनिक स्वामित्व व्यवस्था ही उपयुक्त है जिसमें सम्पत्ति पर व्यक्ति का निजी स्वामित्व होता है। अरस्तू की समपत्ति सम्बन्धी धारणा है कि वैयक्तिक रूप से उस पर "स्वामित्व हो किन्तु उसका उपयोग सामूहिक हित'' के लिए हो। अरस्तू का मानना है कि जब सम्पत्ति पर निजी स्वामित्त होता है तब कलहों को आधार पर क्रम हो जाते हैं सम्पत्ति के कारण व्यक्ति में दानशीलता, मैत्री, आतिथ्य सेवा अथवा उदारता जैसे नैतिक गुणों का विकास होता है। जिसके पास निजी सम्पत्ति है वह व्यक्ति राज्य के साथ अपने हित को एक मानता है तथा सम्पत्तिहीन व्यक्ति राज्य के प्रति एकता के भाव नहीं रख सकता। निजी सम्पत्ति की भावना व्यक्तियों को अधिक उद्यम करने की प्रेरणा देती है जिसमें मनुष्य बालू रेत को भी सोने में बदल देता है। सम्पत्ति के सम्बन्ध में अरस्तू सबसे प्रबल तर्क यह है कि सम्पत्ति की संस्था युगों से चली आ रही हैं अतः युगों के संचित ज्ञान को ठोकर


मारकर उसका तिरस्कार करना बड़ी भूल है। इस प्रकार विविध तर्क देकर अरस्तू सम्पत्ति के निजी स्वामित्व का समर्थन करता है।


3.10


अरस्तू के विधि सम्बन्धी विचार


अरस्तू के अनुसार राज्य में विधि की सम्प्रभुता होनी चाहिए। उसकी मान्यता है कि निजी शासन, चाहे वह एक व्यक्ति को हो अथवा अनेक व्यक्तियों का, विधि के शासन समान श्रेष्ठ नहीं हो सकता। कानून का शासन पूर्व- निश्चित लिखित नियमों द्वारा संचालित होता हैं कानून के शासन में मनमानी तत्व का अभाव रहता है। अरस्तू कानून को "वासना से अप्रभावित विवके" मानता है और इस अधार पर यह प्रतिपादित करता है कि “विधि का शासन किसी व्यक्ति के शासन की अपेक्षा श्रेयस्कर है।" अतः अरस्तू का निष्कर्ष है कि कानून में ऐसा 'अवैयक्तिक तत्व' है जो किसी श्रेष्ठतम व्यक्ति के शासन में भी संभव है। विधि के शासन की अन्य विशेषताओं का वर्णन करते हुए अरस्तू बताता है कि कानून को संविधान के अनुकूल होना चाहिए। तभी कानून न्यायापूर्ण होता है कि अरस्तू सतत रूप से 'विधि शासन' की दृढ़ समर्थक है। अरस्तू के शब्दों में "विधि का शासन किसी एक व्यक्ति के शासन की अपेक्षा वाछनीय है, भले ही व्यक्तियों का शासन उचित लगता हो तब भी व्यक्तियों को विधि का संरक्षक अथवा विधियों का सेवक ही बनना चाहिए।"


अरस्तू विधिको विवके का ही दूसरा रूप मानता है। कानून स्वार्थों से युक्त विवेक की वाणी है। क्योंकि कानून विवेकसम्मत होता है, अतः राज्य में विधि का शासन होना चाहिएं अरस्तू क विधि की सर्वोच्चता सम्बन्धी विचार प्लेटो के ब्लॉज में प्रतिपादित विचारों के समान ही है, किन्तु कानून की सम्प्रभुता को स्वीकार कर अरस्तू ने प्लेटो के रिपब्लिक की उस धारणा को स्पष्ठ रूप से खंडित किया है कि राज्य में ज्ञान का अथवा दार्शनिक राजा का शासन सर्वश्रेष्ठ होता हैं अरस्तू मूर्त व्यक्ति के शासन की अपेक्षा अमूर्त विधि के शासन


3. 11 अरस्तू की न्याय सम्बन्धी धारणा


अरस्तू की न्याय की धारणा में सामाजिक नैतिकता तथा कानूनी दायित्व के तत्वों का समावेशन है। न्याय व्याख्या करते हुए अरस्तू लिखता है कि 'न्याय सदगुण का व्यावहारिक प्रयोग है।" इसका अर्थ यह है कि अरस्तू की दृष्टि में है। 'सदगुण और न्याय' पर्यायवाची है। उसके अनुसार जब सदगुण व्यक्ति के व्यवहार में प्रकट होता है, यही न्याय


न्याय के दो प्रकार सामान्य और विशिष्ट न्यायः- अरस्तू ने न्याय के दो प्रकार बताये है- 'सामान्य न्याय' तथा "विशिष्ट न्याय' । सामान्य न्याय से तात्पर्य सम्पूर्ण श्रेष्ठता से है। इस सम्पूर्ण श्रेष्ठता का प्रयोग व्यक्ति अपने पड़ोसी के साथ व्यवहार में करता है। पड़ौसियों के प्रति नैतिक व्यवहार तथा नैतिक सदगुण का आचरण ही सामान्य न्याय है। 'विशिष्ठ न्याय' सामान्य न्याय का ही अंश है। इसका सम्बन्ध श्रेष्ठता के विशिष्ठ पक्ष से है, जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ समभाव से अथवा समता के साथ व्यवहार करता है।


"अरस्तू विशिष्ठ न्याय के कभी दो रूप मानता है। वितरणात्मक न्याय तथा परिशोधनात्मक न्याय ।" अरस्तू की न्याय की धारणा का वर्गीकरण इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।


न्याय

सामान्य न्याय


विशिष्ठ न्याय


वितरणात्मक न्याय


परिशोधनात्मक न्याय


वितरणात्मक न्याय


अरस्तू के राजनीतिक सिद्धान्त में वितरणात्मक न्याय की धारणा का विशेष महत्व है। वितरणात्मक न्याय वह व्यवस्था है जिसके द्वारा राज्य अपने सदस्यों के बीच सरकार के पदों सम्मानों तथा अन्य दूसरे प्रकारों के लाभों को वितरित करता है । वितरणात्मक न्याय पदों के वितरण का वह सिद्धान्त है जिसके द्वारा व्यक्ति को उसके द्वारा राज्य को दिये गये योगदान के अनुपाता में उसे पुरस्कार दिया जाता है, अधिक योगदान के अनुपात में अधिक पुरस्कार तथा कम योगदान के अनुपात में कम पुरस्कार। अरस्तू की धारणा है कि वितरणात्मक न्याय राज्य में असमानता को बढ़ावा नहीं देता अपितु जो योग्य है उन्हें अयोग्यों से असमान स्वीकार कर उनकी योग्यता के अनुपातों में पद तथा प्रदन्त करता है। अरस्तू की समानता की यही धारणा है कि राज्य के सभी संवैधानिक अधिकारधारी अपनी योग्यतानुसार ही राज्य के लाभों को प्राप्त कर सकें। अतः योग्यता के अनुपात में राज्य के पदों का लोगों में वितरण करना ही अरस्तू का ‘वितरणात्मक न्याय' का सिद्धान्त है। वर्कर के अनुसार, “विशिष्ठ न्याय (वितरणात्मक न्याय) समान व्यक्तियों के समुदाय का ऐसा गुण है जो एक ओर अपने सदस्यों को उनके योगदान के अनुसार पद एवं अन्य पुरस्कार वितरित करता है। "


विशिष्ठ न्याय का दूसरा पक्ष सुधारात्मक न्याय है। सुधारात्मक न्याय राज्य की उस व्यवस्था को कहते है। जिसके द्वारा व्यक्तियों में पारस्पारिक लेन-देन के सम्बन्धों का नियमन किया जाता है। सुधारात्मक न्याय का दायरा 'राज्य और व्यक्ति' नहीं है, यह 'व्यक्ति और व्यक्ति' के बीच का दायरा है।


3.12


अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी विचार


प्लेटो परिवर्तन को पतन और भ्रष्टाचार से जोड़ते थे, दूसरी ओर अरस्तू परिवर्तन का अरिवार्य और आदर्श की शिक्षा में गति मानते थे। प्लेटो के विपरित वे प्रगति को सम्पूर्णता की ओर विकास समझते थे लेकिन साथ ही अनावश्यक ओर निरतंर परिवर्तन के खिलाफ थे। अरस्तू का परिवर्तन सम्बन्धी विचार विज्ञान और प्रकृति के अध्ययन का नतीजा था।


क्रान्तियों के सामान्य कारणों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया-


(1) मनोवैज्ञानिक कारण (2) मस्तिष्क में उद्देश्य (3) राजनैतिक उथल-पुथल और आपसी टकराव को जन्म देने वाली परिस्थितियां।


मनोवैज्ञानिक कारण औलिगार्की में समानता और जनतंत्र में असमानता की इच्छा है। उद्देश्यों में मुनाफा सम्मान, घमण्ड, डर किसी रूप में बेहतरी घृणा, राज्य के किसी हिस्से में असंतुलित विकास चुनाव के जोड़-तोड़, उदासीनता विरोध का डर, राज्य के अवपयवों के बीच टकराव होते हैं। क्रान्तिकारी परिस्थितियों को जन्म देने वाले अवसर घमण्ड, मुनाफा और आदर के लिए इच्छा, श्रेष्ठता, डर घृणा और राज्य के इस या उस अवयव का असमान विकास है।

हर संविधान में विशेष कारण खोज निकाले गए। जनतन्त्र में कुछ लफ्फाज जनता को भड़काकर धनिकों पर हमला करते थे। इस कारण का निदान का दमन और शासकों में मन-मुटाव से अस्थिरता पैदा होती थी। कुलीनतन्त्र में सरकार समिति करने का अर्थ अस्थिरता का कारण था। विद्रोह तब पैदा होता है जब-


(1) आम जनता स्वयं को शासको के बराबर समझती है। (2) जब महान व्यक्तियों का शासकों द्वारा अपमान किया जाता है। (3) जब क्षमतावान लोगों को सम्मान से दूर रखा जाता है। (4) जब शासक वर्ग के अन्दर कुछ गरीब होते है और परिवर्तन का शिकार बनते है। गरीबों से उचित व्यवहार न होने पर वे विद्रोह करके कुलीनतन्त्र को जनतन्त्र में बदल देते है।


राजतन्त्र में क्रान्ति का निदान कानून के प्रति वफादारी की भावना भसा है। ओलिगार्की और कुलीनतन्त्रों में निदान नागरिक समाज और संवैधानिक अधिकारों वाले लोगों के साथ शासकों के अच्छे सम्बन्ध है। किसी को भी अन्य नागरिकों की तुलना में बहुत ऊँचा उठाना चाहिए क्योंकि धन के मुकाबले पदों में असमानता लोगो को क्रान्ति की ओर धकेलती है। सबको कुछ सम्मान दिया जाय। निरंकुश तानाशाह विभाजन और शासक की नीति के जरिए, धनी और गरीबों के बीच वर्गीय घृणा तेज करके तथा खुफियों का जाल बिछाकर अस्थिरता पर विजय पाते हैं। ऐसे शासक को धार्मिक दीख पड़ना चाहिए, गरीबों के रोजगार के लिए जन कार्य करने चाहिए, फिजूल खर्चों में कटौती करनी चाहिए और परम्पराओं का पालन करना चाहिए।


अरस्तू ने बताया कि क्रान्तियाँ और बगावत आमतौर पर सरकार की छवि के कारण होती हैं। सरकारी पदों का व्यक्तिगत फायदे के लिए दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिए। संवैधानिक स्थायित्व के लिए पदाधिकारियों में तीन गुण होने चाहिए, एक संविधान के प्रति वफादारी, दो असाधारण प्रशासनिक क्षमता, तीन चरित्र की एकाग्रता, अच्छाई और न्याय-प्रियता । उन्होंने सरकारी प्रचार में शिक्षा, कानून, न्याय और समानता इत्यादिा पर जोर दिया।


3.13 अरस्तू का आदर्श राज्य


अरस्तू ने भी प्लेटो की भाँति अपने ग्रन्थ 'पॉलिटिक्स' के अन्तिम चरणों में 'राजनीतिक आदर्शों' तथा श्रेष्ठ एवं सुखी जीवन का विवेचन किया है। अरस्तू तीन प्रकार के शुभों की कल्पना करता है- बाहन शुभ, शारीरिक शुभ तथा आत्म शुभ । अनुभव यह सिद्ध करता है कि इन हितो अथवा शुभों में आत्मा के शुभ की प्राथमिकता रहती है। साहस, विवेक एवं अन्य प्रकार के नैतिक गुण आत्मिक शुभ के अभिन्न तत्व हैं। इस आधार पर अरस्तू का निष्कर्ष है कि "राज्यों तथा व्यक्तियों दोनों ही के लिए जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग शुभतापूर्ण जीवन है।” अरस्तू के विचारानुसार आदर्श संविधान वह है जिसमें दार्शनिक वृत्ति तथा व्यावहारिक गुणों से सम्पन्न सभी प्रकार में लोगों को ऐसे अवसर मिलें जिससे कि वे अपने श्रेष्ठतव को प्राप्त कर सकें तथा सुखी जीवन जी सकें।


आदर्शराज्य के आवश्यक तत्व


1. जनसंख्या:- आदर्श राज्य के लिए अरस्तू इतनी जनसंख्या को आवश्यक मानता है जो कि आकार अथवा मात्रा मैं न हो और न ही कम । राज्य की आबादी इतनी पर्याप्त होनी चाहिए जिसमें कि राज्य के नागरिकता के कार्यों का निष्पादन भली प्रकार से हो सके। राज्य के सिविल कार्य यह निर्धारित करते हैं कि राज्य की आबादी कितनी होनी चाहिए। अधिक आबादी राज्य की महानता का परिचायक नहीं होती। अतः अरस्तू की सिविल कार्य को करने में एक दूसरे को व्यक्तिगत रूप में पहचान सकें तथा राज्य को आत्मनिर्भर बने रहने में सहयोग दे सकें।

राज्य का भू-प्रदेश :- अरस्तू के अनुसार राज्य का भू-प्रदेश भी जनसंख्या के समान न हो तो बहुत कम हो और न ही अत्यधिक बड़ा राज्य की भूमि इतनी हो जिस पर कि नागरिक अवकाश का जीवन बिता सकें नागरिकों के भरण- पोषण से सम्बन्धित इतनी फसल उस भूमि पर उत्पन्न हो, जिससे कि वे अपना जीवन आत्म निर्भरता, मित्राचार तथा उदारता के साथ जी सकें। भूमि के सर्वेक्षण के आधार पर राज्य की सुरक्षा का प्रबंध किया जा सकता है। नगर की आयोजना की जा सकती है तथा आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से तथा उसके आस-पास के इलाकों के साथ संबंधों का निर्धारण किया जा सकता है।


राज्य की सामाजिक संरचनाः- अरस्तू आदर्श राज्य के आवश्यक तत्वों में राज्य की समुचित सामाजिक संरचनाको भी एक आवश्यक तत्व मानता है। वह राज्य की संरचना के दो प्रमुख आधार मानता है। 'समाकलन अंग' ; तथा उनके 'सहायक सदस्य'; वह नागरिकों को 'समान अंग' के रूप में मानता है। दासो और अन्य सेवाओं को करने कृषकों तथा औजार इत्यादि बनाने वालों को वह 'सहायक सदस्यों' के नाम से पुकारता है। नागरिक राज्यों कार्यों में भाग लेते हुए श्रेष्ठ जीवन प्राप्त करते है। सहायक सदस्य उस श्रेष्ठ जीवन की सुविधओं और सेवाओं की व्यवस्था करते हैं। राज्य की संरचना के इन दोनों अंगों द्वारा सेवाओं को समाज के लिए प्रदान किया जाना आवश्यक है। ये सेवाएं इस प्रकार है- कृषि, कला एवं शिल्प, राज्य की सुरक्षा, भू-स्वामित्व, सार्वजनिक पूजा तथा नागरिक एवं राजनैतिक जीवन की सेवा। आदर्श राज्य की सामाजिक संरचना इतनी सक्षम हो कि जीवन की इन आवश्यकताओं की पूर्ति उसकी संस्थाओं द्वारा की जा सके। इन सेवाओं की पूर्ति के लिए अरस्तू ने यहां तक भी निश्चित किया है कि कौर सी सेवा किसके द्वारा निष्पादित की जायेगी।


4- आदर्श राज्य की शिक्षा व्यवस्था:- प्लेटो की भाँति अरस्तू की भी यह मूल धारणा है कि शिक्षा वह उचित साधन है जिसके द्वारा नागरिकों को विवेकशील बनाया जाता है तथा उनके स्वभाव में सदगुणों के जीवन के आदर्शों के अनुसार ढालने की व्यवस्था है। अरस्तू प्लेटो की भाँति नागरिकों तथा शासकों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की शिक्षा योजना प्रस्तुत नहीं करता अपितु एक ही प्रकार की शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था करता है। उसकी यह धारणा है कि सभी व्यक्ति समाज में एक समान स्वतन्त्र नागरिक है। उसकी शिक्षा प्रणाली अवश्य ही आयु के आधार पर व्यक्तियों के भेद को स्वीकार करती है। उसकी मान्यता है कि बाल्यवस्था के लोगों के लिए तदनुकूल शिक्षा हो तथा प्रौढ़ो के लिए उनकी आयु के अनुसार शिक्षा हो। समाज के बड़े लो शासन के कार्यों से जुड़े रहते है किन्तु जो तरूण है वे शासनाधीन रहते हैं। आज के तरूण ही कल के शासक होगें। अतः उन्हें अपने स्वतन्त्र राज्य की आज्ञाओं का पालन करना सीखना आवश्यक है। संक्षेप में, शिक्षा का उद्देश्य 'उत्तम नागरिक' तथा 'उत्तम व्यक्ति' का निर्माण करना है। अरस्तू सभी नागरिकों के लिए एक समान शिक्षा योजना का स्थापना करना आवश्यक है। स्पष्ट है कि अरस्तू शिक्षा प्रणाली को राज्य के नियन्त्रण में रखने के पक्षपाति है। नागरिकों को जीवन उसके स्वयं के जीवन तक ही सीमित रहता है अपितु राज्य के अन्य सदस्यों से जुड़ा रहता है। इस सामाजिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए अरस्तू स्पार्टी की राज्य द्वारा नियंत्रित शिक्षा पद्धति का समर्थन अपने शिक्षा सिद्धान्त में करता है।


5- विधि के शासन की श्रेष्ठताः- अरस्तू की दृष्टि में व्यक्ति के शासन की अपेक्षा विधि का शासन सदैव श्रेष्ठ रहता है। विधि का शासन तथा समुचित व्यक्तिगत सम्पत्ति अरस्तू के आदर्श राज्य के आधार स्तम्भ है। मध्यम वर्ग की श्रेष्ठता के साथ ही अरस्तू विधि के शासन की श्रेष्ठता को भी आदर्श राज्य का आवश्यक तत्व मानता है। अरस्तू प्लेटो की विधि से मुक्त दार्शनिक शासन की धारणा को दोषपूर्ण मानता है।

संक्षेप में, अरस्तू द्वारा प्रस्तुत आदर्श राज्य की यही रूप रेखा है। अरस्तू के आदर्श राज्य की धारणा का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि उसका चिन्तन केवल व्यवहारपरक ही नहीं, अपितु आदर्श तत्वों से भी मुक्त होता है। यही आदर्श तत्वों की समानता है जो प्लेटो और अरस्तू को, उनके विचारों में कई प्रश्नों पर असामानता होते हुए भी, उन्हें एक धरातल पर लाकर खड़ा कर देती है। दोनों ही विचारों को लक्ष्य यही कि ऐसे आदर्श राज्य की खोज की जाय जो व्यक्ति को श्रेष्ठ नैतिक जीवन की उपलब्धि करा सकें।


3.14


पॉलिटी (वैद्यानिक लोकतन्त्र)


अरस्तू की दृष्टि में विभिन्न प्रकार के सावधानों में पॉलिटी सर्वश्रेष्ठ व्यावहारिक संविधान है। पॉलिटी में मध्यम वर्ग के लोगों का बाहुल्य रहता है। अरस्तू के दर्शन में मध्य-मार्ग के प्रति गहरी आस्था है। अरस्तू की ऐसी मान्यता है कि वह राजनैतिक समाज सर्वश्रेष्ठ होता है जिनमें मध्यम वर्ग के नागरिकों का वर्चस्व होता है। वे राज्य सुशासित रहते है जिनमें मध्यम वर्ग विशाल मात्रा में पाया जाता है। अरस्तू का यह दृढ़ विश्वास है कि मध्यम वर्ग राज्य का मेरूदण्ड होता है। जिस राज्य की सम्प्रभु शान्ति मध्यम वर्ग में होती है, उस राज्य में स्थायित्व होता है। उपयुक्त आधारों पर अरस्तू इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अन्य शासकों की अपेक्षा व्यावहारिकता की दृष्टि से पॉलिटी एक आदर्श शासनस व्यवस्था है क्योंकि इसमें मध्यम वर्ग की श्रेष्ठता रहती है।


अभ्यास प्रश्न


1. अरस्तू को किसने “प्रथम राजनैतिक वैज्ञानिक कहा है ' "?


2. पॉलिटिक्स की रचियता कौन है ?


3. राजनीति शास्त्र के अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का जनक किसे कहा जाता है ?


4. स्त्री-पुरूष तथा स्वामी और दास के योग से जो समूह बनता है वही परिवार है। " किसने कहा है?


3.15


सारांश


उपरोक्त अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अरस्तू ने यूनानी राजनीति एवं राजनीतिक संस्थाओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया था। अरस्तू ने यूनान के 158 राज्यों के संविधानों की आगमनात्मक पद्धति से तथ्यों को एकत्र कर उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। इसके साथ ही उसने राज्य की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का विस्तृत विवेचन किया है जिसमे वह कहता है कि राज्य एक ऐसा समुदाय या संघ है जिसका अपना एक विकास क्रम होता है परिवार मिलकर ग्रामों का निर्माण करते है और जब ग्राम के समुदाय बनते है तो राज्य की उत्पत्ति होती है। राज्य समरूप व्यक्तियों के श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति के लिए संस्था है।"


अरस्तू अपने समय में प्रचलित सामाजिक परम्पराओं से अपने को पूरी तरह से पृथक नहीं कर पाया और दासता सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत करता है। अरस्तू परिवार में पति-पत्नी, माता-पिता और सन्तान तथा स्वामी और दास मानता है। इस प्रकार अरस्तू दासतासंबंधी विचार में प्रगतिशील है क्योंकि वह उन्हें परिवार का अभिन्न अंग भी मानता है।

अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों को भी बड़े ही विस्तार से प्रस्तुत करता है जिसमें महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नागरिकता निवास स्थान से यह तय नहीं होती थी क्योंकि स्थानीय बाहरी और दास नागरिको के साथ रहते हुए भी नागरिक नहीं थे। न ही नागरिकता सामाजिक अधिकारों में हिस्सेदारी से परिभाषित होती थी। नागरिक वह था जिसे विचार विमर्श या न्यायिक पदों में हिस्सेदारी हासिल थी और जो अपने राजनैतिक अधिकारों का प्रभावशाली प्रयोग कर सकता था ।


जैसा कि हम स्पष्ट कर चुके है कि 158 संविधानो का अध्ययन कर अरस्तू ने संविधान के सम्बन्ध में भी अपने विचार प्रकट किये है जिसमें वह 'संविधान' को राज्य का निर्धारक तत्व मानता है। और वह कहता है कि संविधान का स्वरूप ही है जो राज्य के स्वरूप की पहचान कराता है।


अरस्तू की न्याय की धारणा में सामाजिक नैतिकता तथा कानूनी दायित्व के तत्वों का समावेशन है। न्याय व्याख्या करते हुए अरस्तू लिखता है कि न्याय सदगुण का व्यावहारिक प्रयोग है।" इसका अर्थ यह है कि अरस्तू की दृष्टि में 'सदगुण 'और न्याय' पर्यायवाची है।


इसके अतिरिक्त अपने गुरू प्लेटो के विपरीत अरस्तू मानता है कि कुटुम्ब एवं सम्पत्ति को राज्य की एकता के नाम पर समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसा कि प्लेटों ने अपनी साम्यवाद की योजना में किया है। अरस्तू प्लेटों के कुटुम्ब और सम्पत्ति सम्बन्धी विचारों की आलोचना करते हुए कहता है कि कुटुम्ब तथा निजी सम्पत्ति व्यक्ति के लिए परम आवश्यक है। अरस्तू के कुटुम्ब और सम्पत्ति विणयक विचारों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उसका वैचारिक दृष्टिकोण व्यक्तिवादी एवं मानवीय आवश्यकताओं को समझने वाला यथार्थवादी दृष्टिकोण है।


अरस्तू प्लेटो के विपरीत राज्य में विधि की सम्प्रभुता होनी चाहिए। उसकी मान्यता है कि निजी शासन, चाहे वह एक व्यक्ति को हो अथवा अनेक व्यक्तियों का, विधि के शासन समान श्रेष्ठ नहीं हो सकता। कानून का शासन पूर्व- निश्चित लिखित नियमों द्वारा संचालित होता हैं कानून के शासन में मनमानी तत्व का अभाव रहता है।


इसके अतिरिक्त अरस्तू ने परिवर्तन की प्रवृत्तियों का भी अध्ययन किया और क्रांति के सन्दर्भ में अपने विचार


विस्तार से व्यक्त किये है।


अंततः उसने आदर्श राज्य की धरना प्रस्तुत की है जिसमे उसने एक आदर्श राज्य के लिए आवश्यक तत्वों जैसे किस प्रकार की भौगोलिक संरचना हो कितनी जनसंख्या हो और किस प्रकार की की संवैधानिक व्यस्था हो इस पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त किये है।


3.16


शब्दावली


1. राजतन्त्र - ऐसी शासन व्यवस्था जिनमें शासन की शक्ति या प्रभुसत्ता एक ही व्यक्ति, अर्थात राज या रानी के हाथों में रहती है।


2. पॉलिटी ऐसी शासन प्रणाली जिनमें शासन की शक्ति निर्धन एवं साधारण लोगों के हाथों में रहती है।


3. सम्प्रभु- • किसी राज्य के अर्न्तगत वह व्यक्ति या निकाय जिसे देश के समस्त क्षेत्र और समस्त व्यक्तियों पर


सर्वोच्च अधिकार प्राप्त हो ।



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