थॉमस हॉब्स जीवन परिचय और उनके विचार व दर्शन

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    जीवन चरित्र, कृतियाँ

    हाब्स का नाम राज्य की उत्पत्ति के समझौतावादी विचारकों में प्रमुखता से लिया जाता है। इस सिद्धान्त का समर्थन सर्वप्रथम सोफिस्ट विचारकों ने किया था। हाब्स का जन्म 5 अप्रैल सन् 1588 को इग्लैण्ड के माजम्बरी नगर में हुआ था।



     इग्लैण्ड की ग्रह्युद्ध जनित स्थिति से डरकर वह फ्रान्स चला गया। यही पर उसने 'लेवियाथन' की रचना की। हॉब्स के विचारों को स्वागत इग्लैण्ड में 1650 में पुनः राजतन्त्र की स्थापना के बाद किया जाने लगा। क्योंकि हॉब्स अपनी लेखनी में अराजक स्थिति से निबटने के लिए राजतंत्र का समर्थन करता है। 1679 में उसका निधन हो गया।हाब्स के द्वारा निम्नलिखित पुस्कों की रचना गई है -

    Decive-1642

    De- corpora - 1642, 

    Leviathan-1651,

    Elements of Law - 1650,


    मानव स्वभाव

    • राज्य की उत्पत्ति के समझौतावादी सिद्धान्त के प्रतिवादन के क्रम में हॉब्स सर्वप्रथम मानव स्वभाव का चित्रण करता है। चूँकि गृहयुद्ध जनित और अराजक स्थिति को देखकर हॉब्स ने मानव स्वभाव के बुरे पक्ष का ही एहसास किया। इसलिए उसने मनुष्य को स्वभाव से असामाजिक प्राणी माना है। हाब्स मानता है मनुष्य अपनी दृष्टि और उसकी जरूरतों के अनुसार वस्तुओं को अच्छा या बुरा कहता है। मनुष्य का प्रत्येक व्यवहार स्वार्थ से प्रेरित होता है उसी से वह संचालित होता है। हाब्स के अनुसार प्रकृति ने सभी मनुष्यों को शारीरिक शक्तियों और बुद्धि में समान बनाया है। इसलिए किसी एक वस्तु की मांग कोई एक करता है तो उसी प्रकार के अन्य भी करते हैं। चूँकि वस्तुओं की संख्या सीमित है संघर्ष प्रारम्भ होता है। परिणामस्वरूप कभी न रूकने वाला संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। इन झगड़ों के पीछे हॉब्स तीन प्रमुख कारण मानता है-

    1- प्रतिस्पर्द्धा 

    2- पारस्परिक अविस्वास 

    3- वैभव

    हॉब्स के अनुसार चूँकि मनुष्य स्वार्थी है। इसलिए पारस्परिक संबंधों के सहयोग को कोई स्थान नहीं है। यदि है तो वह उसी सीमा तक जहाँ तक वह स्वार्थ सिद्धि सहायक है।


    प्राकृतिक अवस्था


    मानव स्वभाव के चित्रण के उपरान्त हाब्स प्राकृतिक अवस्था की विवेचना करता है और वह कहता है कि प्राकृतिक अवस्था पूर्व सामाजिक अवस्था है। जिसमें जीवन में सहयोग न होकर हिंसा प्रधान है। यह अवस्था जिसकी लाठी उसकी भैंस की है जिसमें अपने हितों की सिद्धि के लिए बल प्रयोग में विश्वास करते है। इस प्रकार से यह अवस्था प्रत्येक का प्रत्येक के विरूद्ध युद्ध की अवस्था हो जाती है। इस अवस्था में सभी के पास अपनी रक्षा के लिए अपनी चालाकि और शक्ति है। जो कि सभी में समान है। इसलिए इस अवस्था में संघर्ष भया वह होता है। जहाँ किसी की कोई सम्पत्ति नहीं होती, न ही इस असुरक्षित वातावरण में कोई उद्योग धन्धे संभव हैं। इस प्रकार हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था की तीन प्रमुख विशेषताएं दृष्टिगोचन होती है -

    1- नैतिकता का अभाव

    2- न्याय, अन्याय की धारणा का अभाव

    3- अनवरत संघर्ष की अवस्था होने के कारण सम्पत्ति का अभाव।


    यहाँ एक तथ्य यह स्पष्ट करना नितांत आवश्यक है कि हॉब्स इस प्रकार के किसी प्राकृतिक अवस्था के ऐतिहासिक का दावा नहीं करता हैं। उसका उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि राजशक्ति के अभाव में लोगों के जीवन में इसी प्रकार की असुरक्षा और समाज में संघर्ष की स्थिति बनी रह सकती है इसलिए ऐसा अराजक और हिंसक स्थिति (जो कि ग्रहयुद्ध जनित वातावरण में दिखाई देता है) के निरक्षण के लिए एवं शक्तिशाली राजसत्ता का होना आवश्यक है।



    प्राकृतिक अधिकार और प्राकृतिक नियम

    हॉब्स अपने समझौतावादी सिद्धान्त के प्रतिदान के क्रम में जिस प्राकृतिक अवस्था की कल्पना करता है उस अवस्था में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ भी प्राप्त करने का समान प्राकृतिक अधिकार देता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक के विरूद्ध प्रत्येक के मूह का कारण प्राकृतिक अधिकार ही होता है। परन्तु प्राकृतिक अवस्था में भी व्यक्ति सुरक्षित जीवन जीने की लालसा रखते हुए. बुद्धि द्वारा कुछ नियम बना लेते है। इन प्राकृतिक नियमों को हॉब्स शान्ति की धाराएं कहता है। हॉब्स ने प्राकृतिक नियम को इस प्रकार परिभाषित किया है- “यह वह नियम है जो विवके द्वारा खोजा गया है, जिसके द्वारा मनुष्य के लिए वे कार्य प्रतिबंधित हैं जो उसके जीवन के लिए विनाशप्रद है और जिनके द्वारा उनको उन कार्यों को करने से कोई प्रतिबंध नहीं है, जो जीवन की रक्षा में सहयोग देते हैं। " इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राकृतिक अधिकार प्राकृतिक अवस्था में अनवरत संघर्ष की स्थिति पैदा करते हैं तो, प्राकृतिक नियम, प्राकृतिक अवस्था के इस संघर्ष और अराजकता की स्थिति से उनकी रक्षा करते हैं। हॉब्स ने कुल 19 प्राकृतिक नियमों का उल्लेख किया है। जिनमें से प्रमुख इस प्रकार हैं-

    आत्मरक्षा की प्रकृति

    चूँकि हाब्स अपने राज्य की उत्पत्ति के समझौतावादी सिद्धान्त में प्राकृतिक अवस्था का चित्रण करता है। और वह प्राकृतिक अवस्था ऐसी है जिसमें प्रत्येक के विरूद्ध युद्ध जैसी है। ऐसी स्थिति में हॉब्स के सामने सर्वप्रमुख प्रश्न आत्मरक्षा का है। जैसा कि हम ऊपर स्पष्ट कर चुके है कि हाब्स ऐसी किसी प्राकृतिक अवस्था का ऐतिहासिक दावा तो नहीं करता है परन्तु यह स्पष्ट है कि उसके ऐसा कहने का तात्पर्य यह कि गृहयुद्ध जनित अवस्था या राज्यहीन व्यवस्था होने पर आत्मरक्षा का सवाल सर्वप्रमुख प्रश्न के रूप में सामने आता है। इसीलिए हाब्स ने आत्मरक्षा के सवाल पर विस्तार चर्चा की है। इसी क्रम में हॉब्स कहता है कि मनुष्य की मूलप्रकृति उसकी सुरक्षा की इच्छा है जिसके लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता है। तथा जो तथ्य इसमें सहायक होता है उसे वह अच्छा और जो सहायक नहीं होता है उसे बुरा कहता है।

    इस प्रकार से स्पष्ट है कि मनुष्य अनवरत सुरक्षा की जरूरत महसूस करता है। इसी लिए वह अन्य सभी उपलब्धियाँ अर्जित करना चाहता है जिससे वह अपने सुरक्षा संबंधी चिन्ताओं का निराकरण कर सके। इसलिए किसी मनुष्य के लिए अन्य मनुष्यों का वहीं तक महत्व है जहाँ तक वह उसकी सुरक्षा संबंधी विषयों को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

    हॉब्स मानव स्वभाव के दो पक्षों अभिलाषा और विवके की विस्तार से चर्चा करता है और कहता है कि अभिलाषा के कारण कोई मनुष्य सभी वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है, जिसकी चाहत अन्य लोग रखते है। चूँकि सभी शक्ति और बुद्धिमत्ता में समान है। इसलिए संघर्ष शुरू हो जाता है। जबकि विवेक के कारण मनुष्य आत्मरक्षा की प्रवृत्ति को महत्व देता है, जिससे वह शान्ति स्थापना पर बचन देता है।

    इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ संकीर्ण अभिलाषा संघर्ष को बढ़ाती है वही विवेकपूर्ण स्वार्थ शान्ति स्थापना के लिए आधार तैयार करने का कार्य करता है।


    हॉब्स कहता है कि चूँकि समाज में लोग विवेक के नियमों के अनुसार कार्य नहीं करते है वरन वे क्षणिक उद्वेगों से प्रेरित होकर आचरण करते है इसलिए मनुष्य अपने उद्वेगों को नियंत्रित करने की स्थिति में नहीं होता है। इसलिए हॉब्स कहता है कि एक ऐसी सर्वशक्तिशाली, प्रभुत्व सम्पन्न सत्ता की आवश्यकता है जो मनुष्य को विवेक के अनुरूप आचरण करने के लिए विवश कर सकें परन्तु ऐसा होने के लिए आवश्यक है कि शासन प्रभवशाली हो, क्योंकि प्रभावशाली शक्ति सम्पन्न शासन पर ही सुरक्षा निर्भर करती है।


    राज्य की उत्पत्ति तथा उसकी प्रकृति

    हॉब्स मानता है कि मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी और संघर्षशील है। वह स्वभाव से शांतिपूर्ण रहने वाला नहीं है। इसलिए एक ऐसी सत्ता की आवश्कता होती होती हो जो उसे विवेक के अनुसार आचरण करने के लिए बाध्य कर सके तथा उल्लंघन पर दण्ड भी दे सके। हॉब्स मानता है कि ऐसी सत्ता केवल राज्य में ही संभव है जो सभी व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करती है और सभी को विवेक के अनुसार आचरण करने के लिए बाध्य कर सकती है। तथा इसका उल्लंघन करने वाले को दण्डित भी कर सकती है। अन्ततः हॉब्स यह कहता है कि यह राज्य अपने अस्तित्व में सामाजिक समझौते के फलस्वरूप आता है।


    यह समझौता सभी व्यक्तियों के बीच इस प्रकार से होता है कि जैसे हर एक व्यक्ति ने हर एक व्यक्ति से कहा हो कि ‘“मैं इस व्यक्ति को या व्यक्तियों के समूह को अपना शासन, स्वयं कर सकने का अधिकार और शक्ति इस शर्त पर समर्पित करता हूँ कि तुम भी अपने इस अधिकार को किसी तरह (इस विशेष व्यक्ति या व्यक्ति समूह ) समर्पित कर दो।


    इस प्रकार सम्पूर्ण समुदाय एक व्यक्ति या समूह में संयुक्त हो जाता है सत्ता प्रयोग के संदर्भ में, इसे हाब्स राज्य ( commonwealth) या लैटिन में सिविटास (Civitas) कहते है। हाब्स के अनुसार यही वह लेवियावन या महान देवता है जो हमें शान्तिपूर्ण और सुरक्षित जीवन प्रदान करता हैं इस प्रकार के समझौते से उत्पन्न सम्राट या प्रभुसत्ता (सर्वोच्चसत्ता) समझौते में कोई वचन नही देती है जिसका परिणाम यह होता है कि शासन व्यवस्था खराब होने के बाद भी जनमानस को शासन के विरूद्ध बोलने या विद्रोह का अधिकार नहीं होता है। क्योंकि यही शासन है जो शान्तिपूर्ण और सुरक्षित जीवन प्रदान करता है। जिसके विरूद्ध जाने का मतलब है प्राकृतिक अशान्त व्यवस्था में जाना।

    उपरोक्त विवेचन के आधर पर हॉब्स के राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौते सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएं है:-


    1- हॉब्स का यह समझौता सिद्धान्त सामाजिक और राजनीतिक दोनों है यह सामाजिक इसलिए है कि सभी लोग अपन व्यक्तिगत मनोवृत्त को त्यागकर एक साथ सामाजिक बन्धन को स्वीकार करते है जबकि राजनीतिक इसलिए है कि इसके फलस्वरूप सर्वशक्तिमान राजसत्ता की उत्पत्ति होती है।


    2- इस समझौते में सम्प्रभु शामिल नहीं है। इसलिए यह सरकारी समझौता नहीं है क्योंकि यह समझौता तो व्यक्तियों के मध्य होता है।


    3- सम्प्रभु की सत्ता असीमित है अभर्यादित है क्योंकि वह समझौते अंग नहीं है वरन समझौते का परिणाम है वह किसी प्रकार की शर्तों से बधा नहीं है इसलिए वह निरंकुश भी है।


    4- एक बार समझौता हो जाने पर उससे अलग होने का अधिकार किसी को नहीं है। इस समझौते के बाद किसी भी व्यक्ति के कोई अधिकार व स्वतंत्रता नहीं होती है क्योंकि समझौते के समय सभी ने अपने अधिकार और स्वतंत्रता का त्याग किया है। इसलिए उन्हें निरंकुश सत्ता के विरूद्ध किसी प्रकार के दावे को रखने का कोई अधिकार नहीं है।


    5- समप्रभुत्ता विभाजित नहीं है। क्योंकि यह समझौते का परिणाम है वह सम्प्रभु चाहे एक व्यक्ति हो या व्यक्तियों का समूह।


    7- चूँकि सम्प्रभुत्ता अभर्यादित, अविभाज्य है। इसीलिए वह विधियों का स्रोत भी है। उसका आदेश ही कानून है।


    किसी भी विशेष पर अन्तिम निर्णय लेने का अधिकार सम्प्रभुसत्ता को ही है। युद्ध की घोषणा और सन्धि करने का अधिकार केवल इसी को है।


    यद्यपि हॉब्स ने सम्प्रभुसत्ता को अमर्यादित और निरंकुश सत्ता सम्पन्न बताया। जिसके विरूद्ध जाने का अधिकार जनमानस को नहीं है परन्तु कुछ स्थितियों में हॉब्स ने राजा के आदेश की अवहेलना करने का अधिकार प्रदान करता है।

    हॉब्स कहता है कि यदि राजा व्यक्ति को अपने आपको मारने, घायल करने या जीवन रक्षक उपमाओं को प्रयोग करने का आदेश दे तो ऐसी आज्ञाओं का उल्लंघन करने का अधिकार है। क्योंकि शासन को जनमानस सुरक्षा की आवाश्यकता की पूर्ति के लिए ही स्वीकार करते है। इस प्रकार से हॉब्स अपने राज्य के सिद्धान्त की चरमव्याख्या में व्यक्तिवादी हो जाता और राज्य को उपयोगिता के स्तर पर ले जाता है जो कि कृतिम संख्या है, जिसे जनता ने अपनी आत्म रक्षा के लिए बनाया है।


    प्रभुसत्ता

    हॉब्स के प्रभुसत्ता के सिद्धान्त को समझने के लिए यह आवश्यक है उसके समझौते वादी सिद्धान्त को समग्रता में समझने का प्रयास किया जाए। यहाँ यह पुनः बताना आवश्यक है कि चूँकि समझौते सिद्धान्त में जिस अराजक प्राकृतिक अवस्था की कल्पना हॉब्स करता है। उससे निजात पाने के लिए सभी ने एक दूसरे से किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को अपने ऊपर शासन करने की सत्ता सौंप दी। इसके फलस्वरूप सम्प्रभुसत्ता की उत्पत्ति होती है जो स्वयं समझौते का अंग न होने के कारण किसी प्रकार से मर्यादित नहीं है। उस पर किसी प्रकार को कोई बन्धन नहीं है इस प्रकार से स्पष्ट है कि हॉब्स सम्प्रभुसत्ता का प्रबन्ध समर्थक था उसका सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न शासक पूर्णतः निरंकुश है। उस पर किसी भी प्रकार की कोई मर्यादा नहीं है। उसने उन सभी मर्यादाओं को समाप्त कर दिया जिसे बोंदा ने सम्प्रभुता पर आरोपित किये थे।


    हॉब्स के अनुसार सम्प्रभुता सभी कानूनों का स्रोत है। क्योंकि वही शान्ति व्यवस्था और सुरक्षा के लिए उत्तर हैं। क्योकि ऐसी सत्ता समझौते के दौरान लोगों ने उसे दी है। सम्प्रभुत्ता निरपेक्ष है उसे जनसाधारण पर असीमिति अधिकार प्राप्त है जो किसी भी मानवीय शक्ति से मयादित नहीं है। यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि वह प्राकृतिक कानूनों के भी अधीन नहीं क्योंकि वे तो कानून न होकर विवेक के आदेश है।


    हॉब्स ने अपने सम्प्रभुता के सिद्धान्त शक्ति के विभाजन तथा नियंत्रण और सन्तुलन के सिद्धान्त को कोई महत्व नहीं पदान किया है क्योंकि वह मानता है कि सभी सत्ता का स्रोत स्वयं सम्प्रभु है तो सत्ता का विभाजन कैसे।


    हॉब्स ने बोंदा द्वारा सम्प्रभुता पर सम्पत्ति संबंधी अधिकार का बंधन अस्वीकार किया क्योंकि सम्पत्ति का सृजनहार भी वह सम्प्रभुता को ही मानता है क्योंकि बिना शांति और सुरक्षा के सम्पत्ति का सृजन संभव नहीं है। इसलिए संपत्ति के संबंध में कानून निर्माण का अधिकार भी सम्प्रभु को ही है।


    इसके आगे हॉब्स कहता है कि सम्प्रभु के अधिकार बदले नहीं जा सकते (अपरिवर्तनीय) किसी को दिये नहीं जा सकते (अदेय) इनका विभाजन नहीं किया जा सकता (अभिभाज्य) है। ऐसा करना सम्प्रभुता को नष्ट करना होता है जिसका परिणाम होगा पुनः असुरक्षा का वातावरण जो कोई भी नहीं चाहेगा। अतः उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते है कि हॉब्स के सम्प्रभुता के सिद्धान्त में विरोधामास है। वह यह कि एक तरफ तो वह सम्प्रभुता को अभिभाज्य, अमर्यादित और हस्तान्तरणीय बताता है तो दूसरी तरफ वह जनमानस को सम्प्रभु के ऐसे आदेश का उल्लंघ करने की शक्ति प्रदान करता है जो उसकी आत्मरक्षा के विपरित है। साथ ही यह भी दुविधा है कि यह निर्णय कौन करेगा कि अब ऐसी स्थिति आ गई है। जब विरोध किया जा सकता है।


    बोंदा की भाँति हॉब्स ने भी सम्प्रभुता के निवास के आधार पर ही शासन प्रणाली का वर्गीकरण किया है।


    प्रभुसत्ता का निवास                                               शासन का स्वरूप

    एक व्यक्ति में                                                        राजतंत्र

    कुछ व्यक्तियों में                                                    कुलीनतंत्र

    सब लोगों में                                                            लोकतंत्र


    हॉब्स कहता है कि मिश्रित एवं सीमित शासन प्रणाली की बात करना व्यर्थ है क्योंकि अपरिवर्तनीय और उद्देश्य है। प्रभुसता अभिभाज्य है.


    यहाँ पर यदि हम हॉब्स और बोदा के प्रभुसत्ता सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि बोंदा ने अपने प्रभुसत्ता सिद्धान्त में प्रभुसत्ता पर कई प्रतिबंध आरोपित किये है। जैसे ईश्वरीय नियम, प्राकृतिक नियम और राज्य के मूलभूत नियम। परन्तु हॉब्स ने अपने सम्प्रभु पर ऐसे किसी प्रतिबंध को आरोपित नहीं किया है जो आरेपित किये भी है वह बंधन वैधानिक नहीं है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि बोंदा के सम्प्रभु की तुलना में हॉब्स का सम्प्रभु अधिकार सम्पन्न है।


    नागरिक कानून

    हॉब्स कानून को सम्प्रभु का आदेश कहता है। और इन विधियों में को ही परम्परा या रीति प्रदान नहीं है, प्रधान है तो वह है सम्प्रभु की इच्छा। यही नहीं उस सम्प्रभु में अपनी इच्छा से निर्मित कानून को पालन करने की शक्ति भी निहित है। इसकी इच्छा से निर्मित किसी भी विधि को नैतिक मानदण्डों पर नहीं परखा जा सकता है। क्योंकि ये विधियाँ ही व्यवहार की मानदण्ड तय करती है।


    हॉब्स ने विधि के दो प्रकार स्वीकार किये है

    1- वितरणात्मक या निषेधात्मकः- इसके अंतर्गत नागरिकों के वैधानिक या अवैधानिक कार्यों का विवरण प्रस्तुत किया जाता है।


    2- अज्ञात्मक या दण्डात्मक:- इसके अंतर्गत एक तरफ निर्देश होते है जिनका पालन अनिवार्य होता है जिनके उल्लंघन की दशा में दण्ड का प्रावधान भी होता हैं।


    हॉब्स प्राकृतिक विधि और विधि में अन्तर भी करता है। वह कहता है कि विधि तो सम्प्रभु का आदेश है सम्प्रभु ही ऐसी विवियों का स्रोत भी है। और व्याख्याकार भी है। जबकि प्राकृतिक विधि विवेक का आदेश है। इसके पीछे कोई दण्डात्मक शक्ति नहीं होती जबकि विधि के पीछे दण्डात्मक शक्ति होती है जिसका पालन न किया जाने की स्थिति में उल्लंघनकर्ता, उल्लंघन कही मात्रा तक दण्ड का पात्र होगा।


    यहाँ एक सवाल उठता है कि यदि सम्प्रभु का आदेश ही कानून है जिसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता यह आज के लोकतान्त्रिक युग में कहाँ तक सम्भव है। इसका उत्तर शायद नहीं ही होगा। क्योंकि किसी भी लोकतान्त्रिक देश में अन्तिम सत्ता में निहित होती है। जिसे नियतकान्त्रिक चुनाव के आधार पर प्रभुसत्ता के परियोग करने वाले को बदलने का अधिकार प्राप्त होता है।


    इसके साथ ही हॉब्स सम्प्रभु के उन आदेशों की अवहेलना करने का अधिकार जनता को प्रदान करता है। जो उसकी आत्मरक्षा के विरूद्ध हो ।


    इसके आगे हॉब्स सम्प्रभु को अधिक कानूनों के निर्माण न करने की बात करता है। क्योंकि इससे उनके अनुपालन को सुनिश्चित करने में अनेकानेक समस्या उत्पन्न होगी इस प्रकार हम देखते है कि एक तरफ कानून को सम्प्रभु का आदेश मानता है, जिसे सम्प्रभु सद्विवेक की अभिव्यक्ति कहता तो दूसरी तरफ आत्मरक्षा हेतु तलवार उठाने तक की अनुमति जनता को देता है। इस प्रकार हॉब्स का सम्प्रभुता सिद्धान्त में निरपेक्षता का पुट जितना दिखाई देता है, उतना है नहीं। हॉब्स के सम्प्रभुता सिद्धान्त में जो निरंकुशता दिखाई देती है वह भी उपयोगिता के कारण है और उपयोगिता है आत्मरक्षा जनमानस । इस प्रकार हॉब्स के इस निरंकुश प्रभुसत्ता में उदारवादी तत्व निहित प्रतीत होते है।


    राज्य और चर्च

    जैसा कि हम ऊपर यह स्पष्ट कर चुके है कि हॉब्स सर्वशक्तिशाली, प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य का समर्थन करता है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह है कि वह राज्य के समान्तर किसी भी ऐसी सत्ता को स्वीकार नहीं कर सकता जो राज्य सत्ता को चुनौती दे। जैसा कि तत्कालीन समय में उसने यह देखा कि पादरी और पोप के दावे ऐसे थे कि यदि उन्हें छूट दी जाती तो वे धार्मिक क्षेत्र से बाहर जाकर शासकों को पदच्युत करने की सत्ता भी अपने हाथ में केन्द्रित करना चाहते थे। इसलिए हॉब्स ने स्पष्ट रूप से कहा है कि चर्च, राज्य के समकक्ष सत्ता न होकर उसके अधीन है। क्योंकि उस समय वह देख रहा था कि किस प्रकार से तत्कालीन पादरी और पोप ने समाज में अव्यवस्थाएं फैला रखी थी।


    इसलिए हॉब्स धार्मिक सत्ता को, राजसत्ता के अधीन मानता है राज्य में सम्प्रभु ही सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्ता भी है, विशेय उसकी अनुकम्पा से ही आध्यात्मिक सत्ता प्राप्त करते हैं। हॉब्स इसके आगे कहता है कि जब निर्णय का आधार बुद्धि न होकर आलौकिक अनुभूति हो तो समाज में अराजकता का वातावरण होता है। इसीलिए हॉब्स ने चर्च को अंधकार का राज्य कहा है।


    हॉब्स कहता है कि धर्म का आधार अदृष्ट शक्ति के प्रतिमय है। इसका फायदा आध्यात्मिक जगत उठाता है। अतः राज्य का दायित्व है कि अपने लोगों की इस भय की स्थिति से रक्षा करें। इस प्रकार हॉब्स ने चर्च को पूरी तरह से राजसत्ता के अधीन कर दिया है। यहाँ पर मार्सिलियों ऑफ पड़वा का जिक्र करना आवश्यक है कि इन्होंने आध्यात्मिक सत्ता और लौकिक सत्ता को पृथक कर, चर्च को नागरिक शासन के अधीन करने की जिस प्रक्रिया को आरम्भ किया था, हॉब्स ने उसे अंजाम तक पहुँचा दिया। अन्ततः हम कह सकते है कि हॉब्स ने आध्यात्मिक जगत को पूरी तरह से कानून और राज्य के अधीन कर दिया है।


    व्यक्तिवाद

    अभी तक हमने जितना अध्ययन किया है। उसको देखकर यह लगता है कि हॉब्स निरंकुश राजसत्ता का समर्थन करता है। परन्तु जब इसके आगे हम देखते है कि क्यों वह निरंकुश राजसत्ता का समर्थन करता है तो स्पष्ट होता है कि वह व्यक्तिवादी भी है क्योंकि ऐसा समर्थन वह व्यक्ति के लिए करता है उसकी सुरक्षा के लिए करता हैं। अर्थात अपने सिद्धान्त प्रतिवादन में मूलरूप से वह व्यक्तिवादी है और इस व्यक्ति की सुरक्षा के लिए राज्य को उपयोगिता स्तर पर ले जाता है।


    हॉब्स ने चिन्तन में व्यक्ति अलग-अलग हैं जिनके हितो में टकराहट भी है। इनमें सामंजस्य बैठाने के लिए राजसत्ता का उद्भव होता है, समझौते के फलस्वरूप वह हित है आत्मरक्षा के अधिकार इस अधिकार की रक्षा के लिए वह व्यक्ति को राज्यसत्ता के विरोध का अधिकार भी प्रदान करता है।


    इस प्रकार जब हॉब्स राज्य को समझौते का परिणाम और कृत्रिम मानता है, जिसका दायित्व जनमानस की रक्षा करना है तो वह प्रबल व्यक्तिवादी हो जाता है। हॉब्स पहला विचारक है जिसने व्यक्ति के आत्मरक्षा के अधिकार को सर्वपरि महत्व दिया, और राज्य का दायित्व इस अधिकार की रक्षा करना माना, जो राज्य की उत्पत्ति का कारण और अस्तित्व का आधार है। इस प्रकार व्यक्ति अपने आप में साध्य है और राज्य साधन।


    आलोचना

    हॉब्स एक ऐसा विचारक था जिसे अपने समय में समाज और सत्ता के सभी पक्षों के आलोचना का शिकार होना पड़ा। उसकी आलोचना निरंकुश राजतंत्र वादियों के साथ लोकतंत्र वादियों ने भी की। साथ ही धार्मिक चिन्तकों ने भी आलोचना की। क्लेरेडन ने तो हॉब्स की पुस्तक को जलाकर यहाँ तक कहा कि “मैंने कभी कोई ऐसी पुस्तक नहीं पढ़ी जिसमें इतना राजद्रोह विश्वासघात और धर्मद्रोह भरा हो।"


    निम्न आधार पर हॉब्स की आलोचना की जाती है:-


    1. हॉब्स के चिन्तन की एक प्रमुख आलोचना उसके द्वारा मानव स्वभाव के विकृत स्वरूप के चित्रण के कारण की जाती है। क्योंकि उसने मनुष्य को स्वार्थी और झगड़ालू कहा है। जबकि मनुष्य में दया, प्रेम, सहयोग, त्याग आदि सामाजिक गुण भी पाये जाते हैं।


    2. हॉब्स का समझौता सिद्धान्त भी भ्रम उत्पन्न करता है। एक तरफ तो मनुष्य को झगड़ालू और स्वार्थी कहता था जिससे प्राकृतिक अवस्था संघर्ष की अवस्था हो जाती है, फिर विवेक लोगों को प्राकृतिक अवस्था से मुक्ति के लिए समझौते के लिए तैयार करता है। फिर एक अन्य दुविधा कि समझौते में सम्प्रभु शामितन नहीं है जबकि सैद्धान्तिक दृष्टि से समझौता के लिए दो पक्ष होते हैं।


    3. एक तरफ हॉब्स प्राकृतिक अवस्था की अराजकता से निराकरण के लिए निरंकुश राजसत्ता का समर्थन करता है तो दूसरी तरफ व्यक्ति को आत्मरक्षा के विरूद्ध किसी भी आदेश के विरूद्ध जाने का अधिकार भी देता है।


    अभ्यास प्रश्न-

    १. हाब्स का हाब्स का किस सन में हुआ ?

    २. हाब्स ने 'लेवियाथन' की रचना कहाँ पर की की।

    ३.Elements of Law पुस्तक की रचना किसने की ?




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    यह लेख  लखनऊ यूनिवर्सिटी , लखनऊ से बी.ए एल.एल.बी कर रहे छात्र  Justin Marya द्वारा  कई वेबसाइट की मदद से लिखा गया है।

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