प्लेटो का न्याय सिद्धान्त

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 प्लेटो का न्याय सिद्धान्त


प्लेटो का न्याय सिद्धान्त उसके दर्शन की आधारशिला है। प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुकूल अपने कार्यों को कुशलता एवं सन्तोष भावना से करे, प्लेटो इसे न्याय की संज्ञा देते है। आज हम न्याय को जिस कानूनी परिप्रेक्ष्य में देखते अथवा मानते है, प्लेटो का मत इससे भिन्न था। आज हम लोग न्याय का अर्थ कानूनों द्वारा नागरिकों को दिये गये अधिकार कानूनों द्वारा नागरिकों के वाहय सम्बन्धों का निर्धारण अथवा न्यायलयों द्वारा नागरिकों के ऐसे अधिकारों की रक्षा करने से लगाते है। विद्धानों का मत हैं कि न्याय एक समन्वयकारी सिद्धान्त है जो कि स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के आदर्शों के बीच नागरिकों के हितार्थ समन्वय स्थापित करता है। किन्तु प्लेटो की न्याय की धारणा इससे अलग है प्लेटो जिसे हम नैतिकता कहते है, को सच्चा न्याय मानते है। प्लेटो का न्याय सिद्धान्त व्यक्तिगत नैतिकता तथा सामाजिक नैतिकता का सिद्धान्त है विधि का सिद्धान्त नहीं।


प्लेटो राज्य के विकास का वर्णन करते हुए उसमें "आर्थिक तत्व, सैनिक तत्व तथा दार्शनिक तत्व” तीन प्रकार तत्व का वर्णन करता है, और इसी के आधार पर राज्य में तीनों वर्गों के विकास का वर्णन करता है। समाज के विकास क्रम में उसकी आवश्यकताओं के अनुकूल तीन वर्गों की उत्पत्ति होती है।


ये तीन वर्ग है उत्पादक वर्ग सैनिक वर्ग एवं शासक वर्ग। प्लेटो कहता है कि उत्पादक वर्ग आर्थिक तत्व का सैनिक वर्ग साहस वर्ग का शासक वर्ग दार्शनिक तत्व का प्रतिनिधित्व करते है। वास्तव में राज्य के ये तीनों वर्ग मनुष्य की आत्मा में अन्तर्निहित क्षुधा साहस तथा ज्ञान के सूक्ष्म तत्वों के विशद रूप है। प्लेटो के अनुसार मानवीय आत्मा के तीन प्रधान तत्व क्षुधा साहस तथा विवेक मानता है। मनुष्य के विराट रुप राज्य राज्य में भी ये तीन तत्व पाये जाते है। राज्य में क्षुधातत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला उत्पादक वर्ग है, जिसका एक मात्र कार्य समाज के लोगों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्तिकरना है। राज्य में साहस तत्व का प्रतिनिधित्व करने वाला सैनिक वर्ग है। जिसका एक मात्र कार्य राज्य की रक्षा करना है। राज्य में विवेक अथवा दार्शनिक तत्व का प्रतिनिधित्व शासक वर्ग करता है। दार्शनिक वर्ग का कार्य राज्य का समुचित शासन करना है।


प्लेटो मनुष्य की आत्मा के तीन गुणों की विस्तृत व्याख्या करता है तथा इनका राज्य के तीन वर्गों के साथ सम्बन्ध की बात करता है। आत्मा के तीन तत्वों तथा राज्य के तीन तत्वों में अन्त सम्बन्धों को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है।


मनुष्य की आत्मा के तीन तत्वों का निरुपण कर प्लेटो इन तत्वों का सम्बन्ध समाज में पाये जाने वाले तीन तत्वों और उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वर्गो के साथ जोड़ता है। इस धारणा में प्लेटो का न्याय का सिद्धान्त निहित है। प्लेटो के अनुसार न्याय के दो पक्ष होते है एक व्यक्तिगत न्याय तथा सामाजिक न्याय जब मनुष्य की आत्मा के तीन तत्व अपने अपने निर्धारित कर्मो को करते हैं और इस क्रम में जब क्षुधा वासना पर साहस और विवेक का नियन्त्रण हो तथा जब साहस विवेक के निर्देशन में कार्य करे व्यक्ति के लिए यही न्याय है। प्लेटो के अनुसार व्यक्तिगत न्याय वह है जब व्यक्ति की वासना पर साहस विवेक का तथा साहस पर विवेक का अनुशासन हो। और सामाजिक न्याय वह है जब समाज के तीनों वर्ग अपने अपने कर्तव्यों का पालन करें जब कृषक उत्पादन का कार्य करें। सैनिक देश की रक्षा करें और दार्शनिक शासक के आदेशों का पालन करें और जब दार्शनिक शासक शासन का संचालन करे, और शासक वर्ग की सर्वोच्चता अन्य वर्गो पर रहे, प्लेटो की मान्यतानुसार यही सामाजिक न्याय है।


प्रत्येक वर्ग का सम्पूर्ण दक्षता से अपने निश्चित कर्तव्य को करना तथा दूसरे वर्ग के कार्यों में हस्तक्षेप न करना ही प्लेटो की परिभाषा में सामाजिक न्याय है। जिस प्रकार व्यक्ति के जीवन में क्षुधा तथा साहस का संचालन विवेक तत्व से करना न्याय है, उसी प्रकार क्योंकि राज्य अन्ततोगत्वा मन की ही उपज है, राज्य में यही न्याय है। प्लेटो के अनुसार प्रत्येक वर्ग द्वारा अपने सुनिश्चित कार्यो को कुशलतापूर्वक करना ही सामाजिक न्याय है।


न्याय का वास्तविक रुप


उपर्युक्त विवेचना के आधार पर प्लेटो की न्याय की धारणा के वास्तविक स्वरुप को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है।


1. प्लेटो की मान्यता है कि मनुष्य को जन्म से ही कुछ योग्यतायें प्रकृति द्वारा प्राप्त होती है। अतः व्यक्ति को केवल उसी योग्यता के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। समाज के प्रत्येक व्यक्ति तथा वर्ग द्वारा अपने निश्चित कर्मी की कुशलता से करना ही न्याय है। प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में व्यक्ति के अधिकारों पर नहीं कर्तव्यों पर बल दिया गया है।


2. प्लेटो के अनुसार न्याय वैयक्तिक तथा सामाजिक नैतिकता का सिद्धान्त है। अतः प्लेटो का न्याय सामाजिक शुभ की प्राप्ति का नैतिकता का मार्ग है।


3. प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में श्रम विभाजन अहस्तक्षेप तथा कार्यो की विशेषज्ञता के तत्व निहित है।


4. प्लेटो का न्याय सिद्धान्त सामाजिक एकता पर बल देता है। एथेन्स राज्य के विभिन्न बंटे हुए वर्गो में एकता और सामाजिक समरसत्ता स्थापित करना प्लेटो का लक्ष्य था जिसकी पूर्ति का साधन न्याय है।


5. प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का तार्किक परिणाम विवेक की सर्वोपरिता है। इस सिद्धान्त के पीछे सुफरात से प्राप्त प्लेटो की यह मान्यता है कि ज्ञान ही सदगुण हैं दार्शनिक शासक ज्ञान की प्रतिमूर्ति है अतः राज्य में दार्शनिक शासक का विवेक का, शासन होना चाहिए।


न्याय सिद्धान्त की आलोचना


प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का अध्ययन करने से उसकी कुछ दुबलाऐं भी प्रकट होती है जो इस प्रकार है-


1. प्लेटो की न्याय की धारणा अत्याधिक निष्क्रिय है किसी प्राकृतिक गुण की क्षमता के नाम पर व्यक्ति को जीवन पर्यन्त निश्चित स्थान पर अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए बाँध दिया जाता है। उस निश्चित स्थान से आगे बड़ने अथवा उपर उठने की इस व्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं है।


2. व्यक्तियों की इच्छाओं के संघर्ष अथवा टकरावों का समाधान करने की न्याय सिद्धानत में कोई व्यवस्था नहीं है। 3. प्लेटो का न्याय सिद्धान्त विधि और नैतिकता के बीच की विभाजक रेखा को धूमिलकर देता है। प्लेटो के न्याय के नाम पर नैतिक कर्तव्यों को तथा कानूनी दायित्व को एक ही मान लिया है।


4. प्लेटो व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों का निराकरण करने तथा सामाजिक एकता के लक्ष्य की प्राप्ति के नाम पर अत्यधिक एकीकरण व्यवस्था की बात करता है।


पॉपर नामक विद्धान्त, प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में सर्वसत्तावादी समाज के बीज ढूंढता है। वह कहता है कि प्लेटो के समाज में विवेक के नाम पर एक वर्ग विशेष का शासन थोपा जाता है। पॉपर के अनुसार प्लेटो की न्याय की परिभाषा के पीछे आधारभूत स्तर पर एक एक सर्वसत्तावादी वर्ग का शासन की मांग है। प्लेटो का समाज तीन वर्गों की असमानताओं पर टिका हुआ है जिसमें समानता का कोई स्थान नहीं है। लेकिन अन्त में बार्कर का मत है कि "प्लेटो का राजनीतिक सिद्धान्त इस नैतिक सावयव का सिद्धान्त है और उसका न्याय सिद्धान्त ऐसी नैतिकता की संहिता है। जिसके द्वारा वह समाज में जीता है।

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