सिविल प्रक्रिया संहिता का इतिहास उद्देश्य एवं विषय क्षेत्र// History, Objective and Scope of Civil Procedure Code // CPC

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 इतिहास


उद्देश्य


संयोजना


विषय-क्षेत्र


⇒ सर्वांगपूर्ण अथवा नहीं


जहाँ यह समीचीन है कि सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया से सम्बन्धित विधियों का समेकन और संशोधन किया जाये, अतः एतद्वारा निम्नलिखित रूप में यह अविनियमित किया जाता है:


• इतिहास ( History ) 


1859 से पूर्व दीवानी मामलों हेतु कोई स्वीकृत प्रक्रिया संहिता भारत में नहीं थी। पहला प्रयास अंग्रेजी शासन द्वारा 1859 में किया गया जिसके फल्स्वरूप दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1859 में पारित की गई, परन्तु यह संहिता प्रेसीडेन्सी लगों पर लागू नहीं थी। 1862 में दीवानी अदालतों और सुप्रीम कोर्ट, समाप्त होने पर यह. संहिषा उच्च न्यायालयों सरे लागू हुई। दूसरी प्रक्रिया संहिता 1877 में पारित की गई जिसके द्वारा 1859 की प्रक्रिमा संहिता को निरसित कर दिया गया। 1877 की प्रक्रिया संहिता में भी अनेक परिवर्तन किये गये। 1882 में तीसरी व्यवहार प्रक्रिया संहिता पारित की गई परन्तु यह .भी. आवश्यकता के अनुरूप न होने के कारण 1908 में पारित व्यवहार प्रक्रिया संहिता द्वारा निरसित कर दी गई। इस प्रकार व्यवहार प्रक्रिया संहिता 1908 अपने संशोधित और परिवर्धित रूप में 1977 से पूर्व दीवानी मामलों के निस्तारण हेतु व्यवहार प्रक्रिया रही है।



धारा 1 के अनुसार सिवित्व प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का अधिनियम 104) का विशिष्ट उद्देश्य सन् 1908 की सिविल संहिता में न्यायिक सुधारों की आवश्यकता के अनुभव पिछले समय से किया जा रह्य था। अपनी 27 वीं रिपोर्ट में विधि आयोग ने इस विषय पर बिचार क्रिया था और उसने सिविल प्रक्रिया संहिता के संशोधन के लिए विशिष्ट सुझाव और संस्तुतियों प्रस्तुत कीं। विधि आयोग की रिपोर्ट की संस्तुतियों के आधार पर एक विस्तृत विधेयक तैयार किया गया और उसे सन् 1968 में संसद के समक्ष पुनःसीीपित किया गया। वह विधेयक संसद के दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति को निदेर्शित किया गया।


इसके उपरान्त 8 अप्रैल, 1974 को विधि-आयोग की विभिन्न रिपोटों में निहित संस्तुतियों को सम्मिलित करते हुए एक विधेयक लोकसभा में पुनःसीीषित किया गया। इस विधेयक में सिविल प्रक्रिया • संहिता, 1908 और लिमिटेशन ऐक्ट, 1963 को संशोधित करने का लक्ष्य सामने रखा गया। सन् 1974 का यह विधेयक संसद के दोनों सदनों द्वारा अगस्त, 1976 में पारित कर दिया गया और उस पर 9 सितम्बर, 1976 को राष्ट्रपति का हस्ताक्षर हो गया।


संयोजना ( Combination ) 


इस संहिता के दो भाग है। एक भाग में 158 धारायें हैं और दूसरे भाग में अनुसूची है, जिसमें 51 आदेश हैं। संहिता से तात्पर्य केवल धाराओं से नहीं है, अपितु इसमें प्रथम अनुसूची के नियम भी आते हैं। इसमें उच्च न्यायालय द्वाराः नियमों में किया गया संधोधन भी आता है। प्रथम भाग की धारायें दीवानी मामलों के विनिश्चय सम्बन्धित सामान्य सिद्धांतों के क्रियान्व्यन हेतु विभिन्न प्रक्रियात्मक नियमों का सृजन करते हैं। प्रथम भाग के उपबंधों को भाग दो के उन्न् निक्ष्मों के साथ पढ़ा जाएगा जो सिद्धांत विशेष ब्योरे को विहित करते हैं।


संहिता की विषय-वस्तु संविधान की समवर्ती सूची में होने के कारण केन्द्र एंव राज्य दोनों को ही विधायन क्षेत्राधिकार है। इसलिए संहिता के प्रथम भागं के प्रावधोत्तों में संसद एवं राज्य के विधान मंडल संशोधन कर सकते हैं, परन्तु दूसरा भाग जो नियमावली से सम्बन्धिते हैं, में संशोधन राज्य के उच्च न्यायालय भी कर सकते हैं, परन्तु प्रतिबंध यह है कि ऐसा कोई संशोधने संहिता के पहले भाग के प्रावधानों के प्रतिकूल न हौं, और यदि यह प्रतिकूल होते हैं तो संहिता के प्रथम भाग के प्रावधान अभिभावी होंगे।


विषय क्षेत्र ( Scope) 


यह संहिता प्रचलित प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों को ससेकित् एवं संशोधित करती है। संहिता भारत के सभी दीवानी न्यायालयों पर लागू होती है पर यह किसी विशेष या स्थानीय विधि को प्रभावित नहीं. करती है। जहाँ कहीं भी इस संहिता के नियमों और किसी विशेष विधि में विरोधाभास है वहाँ वरीयता विशेष विधि के नियमों को मिलेगी। यह संहिता न्यायालय की शक्ति प्रदान करती है लेकिन इसकी असीमित शक्तियों को निर्बन्धित तहीं करती है। यह संहिता विदेशियों पर भी लागू होती है। संहिता के माध्यम से किसी ऐसे अधिकार का सूजन नहीं क्रिया जा सकता जो देश की साधारण विधि में विद्यमान नहीं है।


सर्वांमपूर्ण अथवा नहीं ( congruent or not ) 


यह संहिता उन विषयों के सम्बन्ध में सर्वाणपूर्ण है जिनके सम्बन्ध में इसमें प्रावधान किये गये "हैं। परन्तु कोई भी विधि अपने में सभी सम्भाव्य परिस्थिलियों के सम्बन्ध में नियम उपबन्धित नहीं कर सकती और न ही व्यायेत्य के समझ आने वाली प्रत्येक समस्या का समाधान. हीं प्रस्तुत कर सकती है क्योंकि हर देश की विधि देश की आशाओं एवं आकाँक्षाओं की अनुगामी होती है और काल एवं परिस्थितियों के साथ समय समय पर वे नियम अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। यह संहिता के बारे में उतनी ही सत्य है जितना कि और विधियों के सम्बन्ध में। इसी उद्देश्य से संहिता की धारा 151. के माध्यम से एक अन्तनिर्हित शक्ति की व्यवस्था की गई इसके माध्यम से न्यायालय न्याय, एवं शुद्ध अन्तःकरण के अनुसार उम्र परिस्थितियों का समाधान करते हैं जिनके लिए संहिता में कोई व्यवस्था नहीं है।

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