"समय संविदा का मर्म होता है।" समझाइये//"Time is the essence of the Contract." Explain

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 प्रश्न - 'समय संविदा का सार होता है।' इस कथन को समझाइये। *Time is the essence of the contract. Explain this statement.



OR


ऐसी संविदा का जिसमें समय मर्मभूत हो, नियत समय पर पालन नहीं किये जाने के प्रभावों का उल्लेख कीजिए ।


State the effects of failure to perform at fixed time in which time is


essential.


OR


"समय संविदा का मर्म होता है।" इस कथन को समझाइये। "Time is the essence of the Contract." Explain this statement.


उत्तर - विधि का यह एक सामान्य नियम है कि जहाँ किसी संविदा में उसके पालन का समय विनिर्दिष्ट नहीं हो, वहाँ उसका पालन युक्तियुक्त समय में किया जाना चाहिये और जहां पालन का समय विनिर्दिष्ट हो, वहां उस समय पर या उसके पूर्व संविदा का पालन किया जाना चाहिये।


इस प्रकार सामान्यतया समय का संविदा में एक विशिष्ट महत्व होता है। लेकिन कुछ संविदायें ऐसी भी हो सकती हैं जिसमें समय मर्मभूत नहीं होता है। इन दोनों ही अवस्थाओं का उल्लेख अधिनियम की धारा 55 में किया गया है।


1. जब समय संविदा का मर्म हो (When time is the essence of contract) - जहाँ किसी संविदा के पक्षकारों का यह आशय रहा हो कि समय संविदा का मर्म था तो एक पक्षकार के अपने वचन के विनिर्दिष्ट समय के भीतर पालन करने में असफल रहने पर संविदा दूसरे पक्षकार के विकल्प पर शून्यकरणीय हो जाती है।


• किसी संविदा में विनिर्दिष्ट समय उस संविदा का मर्म था या नहीं, एक तथ्य का प्रश्न है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। साथ ही यह एक ऐसा प्रश्न भी है जो संविदा के निबन्धनों एवं उसके पक्षकारों के आशय पर निर्भर करता है।


समय को संविदा का मर्म बनाने के लिए स्वर्णिम नियम यह है कि पक्षकारों को अपना यह आशय संविदा में स्पष्ट, अभिव्यक्त एवं असंदिग्ध भाषा में उल्लेख कर देना चाहिए। उड़ीसा टेक्सटाइल्स मिल्स बनाम गणेश दास, ए० आई० आर० 1961 पटना 107


के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि निम्नलिखित अवस्थाओं में समय को संविदा


का मर्म होना प्रायः हमेशा ही माना जाता रहा है-

(1) जहाँ कि पक्षकारों ने स्पष्ट रूप से ऐसा अनुबन्धित किया हो; (2) जहां विलम्ब क्षति के रूप में प्रवर्तनशील हो; (3) जहाँ कि ऐसा अर्थ लगाया जाना संविदा के स्वरूप और उसकी आवश्यकताओं से अपेक्षित हो।


त्रिलोक्यनाथ बनाम प्रवती सान्तरा, ए० आई० आर० 1974 कलकत्ता 261 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि किसी संविदा में समय कब मर्म हो जाता है यह प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि प्रलेख में संविदा को रद्द करने के लिए स्पष्ट रूप से कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया हो तो विक्रय की संविदा में शेष विक्रय धन को एक निश्चित समय के भीतर न दे सकने के कारण संविदा आवश्यक रूप से स्वतः समाप्त हो जायेगी।


मे० सीताडेल फाईन फार्मास्यूटिकल्स बनाम मे० रामनियम रियल एस्टेट प्रा० लि० (ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3351) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां संविदा में समय को मर्म माना गया हो तथा एक निर्धारित समयावधि में किसी नगरीय भूमि के विक्रय की क्रेता द्वारा अनुमति प्राप्त की जानी हो, वहाँ ऐसी अनुमति प्राप्त नहीं किये जाने पर संविदा विक्रेता द्वारा विखण्डित की जा सकेगी।


श्रीमती शारदामणि कण्डपन्न बनाम श्रीमती एस० राजलक्ष्मी (ए० आई० आर० 2011 एस० सी० 3234) के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि-अचल सम्पत्ति के विक्रय के मामले में जहां प्रतिफल के भुगतान का समय निर्धारित कर दिया गया हो और अवकाश होने पर भुगतान की रीति सुनिश्चित कर दी गयी हो, वहां समय संविदा का मर्म माना जायेगा।


अचल सम्पत्ति के प्रतिहस्तान्तरण (reconveyance) के मामले में समय सदैव संविदा का सार होता है। [राजकिशोर बनाम प्रेम सिंह, (2011) 1 एस० सी० सी० 313]


2. जब समय संविदा का मर्म न हो (When time is not essence of contract ) - जहाँ समय किसी संविदा का मर्म न रहा हो और वचनदाता उसका पालन नियत समय के भीतर करने में असफल रहा हो वहाँ वचनग्रहीता को उसे शून्य घोषित करने का अधिकार नहीं। होगा। वह ऐसी असफलता से कारित हानि के लिए वचनदाता से प्रतिकर प्राप्त कर सकता है।


एच० एस० आई० डी० सी० बनाम हरिओम इण्टरप्राइजेज, (2009) 16 एस० सी० सी० 208 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया है कि जहाँ किसी संविदा के समय के विषय में नम्यता या लचीलापन है तो समय में संविदा का पालन आदेशक (imperative) नहीं होता है। दूसरे शब्दों में ऐसे मामलों में समय संविदा का सार नहीं होता है।


यदि किसी संविदा में समय संविदा का सार नहीं भी है तो भी संविदा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप नुकसान होता है तो नुकसान के लिए मुआवजा दिया जा सकता है। [कान्स्ट्रक्शन एण्ड डिजाइन सर्विसेज बनाम डेलही डेवलपमेण्ट अथॉरिटी, (2016) 2 एस० सी० सी० 800]


यदि पक्षकारों ने करार को उन अर्थों में नहीं ग्रहण किया कि समय संविदा का सार है। तथा समय के बीत जाने के पश्चात् भी भुगतान की मांग की, न्यायालय द्वारा यह धारित किया गया कि समय संविदा का सार नहीं है (अमतेश्वर आनन्द बनाम वीरेन्द्र मोहन सिंह, ए आई० आर० 2006 एस० सी० 151 ) ।

समय संविदा का मर्म होने की अवस्था में ऐसी संविदा वचनग्रहीता के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है। वचनग्रहीता को अपने इस विकल्प का प्रयोग समय समाप्त होने के समय या उसके पूर्व ही करना चाहिये। समय समाप्त हो जाने के बाद वह अपने इस विकल्प का प्रयोग नहीं कर सकता।

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