संविदा तथा वैध संविदा के आवश्यक तत्वों को समझाइए//What is Contract and essential for valid contract??

0

सविंदा क्या है ? What is Contract?




    परिचय (Introduction)


    कोई भी वाणिज्यिक व्यवहार उसके पक्षकारों के आपसी समझ पर आधारित होता है। इस आपसी समझ या विचार को सामान्यतया पक्षकारों के आशय को प्रभावी करने के लिये लिख लिया जाता है। इस प्रकार की औपचारिक अभिव्यक्ति को ही संविदा के रूप में जाना जाता है। इन संविदाओं में पक्षकारों के अधिकार एवं दायित्वों का समावेश होता है जो उन्हें अपने संविदात्मक दायित्वों को पूरा करने में सहूलियत प्रदान करता है।


    भारतीय संविदा अधिनियम 1872 उन विधिक सिद्धान्तों को संहिताबद्ध करता है जो 'संविदा को प्रशासित करते हैं। अधिनियम मुख्य रूप से विधितः प्रवर्तनीय वैध संविदाओं के तत्वों को निर्दिष्ट करता है साथ ही कुछ विशेष प्रकार के संविदात्मक सम्बन्धों जैसे क्षतिपूर्ति, प्रत्याभूति, निक्षेप, गिरवी, संविदाकल्प, समाश्रित संविदाओं को स्पष्ट करता है।


    यद्यपि सभी संविदा करार है, तथापि सभी करार संविदा नहीं होते। एक ऐसा करार जो विधितः प्रवर्तनीय है, एक संविदा है करार जो विधि द्वारा प्रवतनीय नहीं है वे संविदा नहीं है किन्तु वह शून्य करार (जो कदापि प्रवर्तनीय नहीं है) अथवा शून्यकरणीय करार (जो केवल करार के एक पक्ष के द्वारा प्रवर्तनीय है) के रूप में रहते हैं।


    उपर्युक्त परीक्षण हमारे मस्तिष्क में एक स्वाभाविक प्रश्न पैदा करता है कि 'करार' एवं 'संविदा का सटीक अर्थ क्या है?


    करार एक वचन है अथवा एक प्रतिज्ञा है अथवा व्यक्तिकारी वचनों का संवर्ग है करार में


    एक व्यक्ति का प्रस्ताव अथवा प्रस्थापना सम्मिलित है जो अन्य व्यक्ति के स्वीकृति हेतु आशयित है । यदि ऐसा करार विधि द्वारा प्रवर्तनीयता धारित करे तो वह संविदा होगा।


    अब अधिनियम के धारा 2 (b) में परिभाषित वचन की परिभाषा को लेते है; "जब कि वह व्यक्ति, जिससे प्रस्थापना की जाती है उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है तब वह प्रस्थापना प्रतिगृहीत हुई कही जाती है। प्रस्थापना प्रतिगृहीत हो जाने पर वचन हो जाती है"।


    अधिनियम की धारा 2 (c) करार को परिभाषित करते हुए कहती हैं, "हर एक वचन और ऐसे वचनों का हर एक संवर्ग, जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल हो, करार है।" 


    धारा 2(h) संविदा शब्द को परिभाषित करते हुए बताती है "वह करार, जो विधितः प्रवर्तनीय हो, संविदा है"। उपर्युक्त व्याख्या के आधार पर हम इसे अधोलिखित प्रकार से व्यक्त कर सकते है :




    वैध संविदा के आवश्यक तत्व (ESSENTIALS OF A VALID CONTRACT)


    अब हम वैध संविदा के आवश्यक तत्वों की व्याख्या करते हैं।


    अधिनियम के धारा 10 के शब्दों में, "सब करार संविदाएं हैं, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतंन्त्र सहमति से किसी विधिपूर्ण प्रतिफल के लिये और किसी विधिपूर्ण उद्देश्य से किए गए हैं और एतद्द्वारा अभिव्यक्ततः शून्य घोषित नहीं किए गए हैं।"


    अतः एक वैध संविदा के निर्माण हेतु निम्नलिखित तत्व वर्तमान होने चाहिए:


    1. प्रस्ताव एवं स्वीकृति के माध्यम से विधिक दायित्व सृजित करने का आशय होना चाहिए।

    2. पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति आवश्यक है।

    3. संविदा में प्रवेश हेतु योग्यता या क्षमता सुनिश्चित    होनी चाहिए।

    4. विधिपूर्ण प्रतिफल वर्तमान होना चाहिए और

    5. विधिपूर्ण उद्देश्य संविदा की विषयवस्तु होती है।



    उपर्युक्त आवश्यक तत्वों की व्याख्या निम्नलिखित प्रकार से की जा सकती है:


    1. प्रथमतया एक प्रस्ताव होना चाहिए जिसकी स्वीकृति भी होनी चाहिए इस तरह के प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति द्वारा पक्षकारों के बीच कानूनी दायित्व सृजित होना चाहिए। परिणामस्वरूप यह उस व्यक्ति पर जिसने प्रतिज्ञा की है, कुछ करने के लिये नैतिक दायित्व उत्पन्न करता है। इसी प्रकार यह वचनदाता को करार की पूर्णता का दावा अधिकार प्रदान करता है। इस प्रकार के कर्तव्य एवं अधिकार विधिक होने चाहिये मात्र नैतिक नहीं। न्यायिक दृष्टांत :


    बैलफोर बनाम बैलफोर के मामले में पति ने पत्नी को जितनी अवधि तक वे अलग रहे के लिए जीवन निर्वाह भत्ता देने का वचन दिया जब वह अपने वचनपालन में असफल रहा तो पत्नी ने उस वचन की प्रवर्तनीयता के लिये वाद दायर किया। जैसा कि यह एक घरेलू प्रकृति का करार था, अतः यह निर्धारित हुआ कि इस मामले में किसी विधिक दायित्व का स्थापना नहीं हुआ।


    2 दूसरा तत्व पक्षकारों की स्वीकृति है स्वीकृति का अर्थ है आशयित पक्षकारों का ज्ञान और अनुमोदन इसे दूसरे रूप में मानसिक तत्व की पहचान के रूप में देखा जा सकता है जिसे मतैक्य कहते हैं। तत्पश्चात् ऐसी स्वीकृति को स्वतन्त्र होना चाहिए स्वीकृति को स्वतन्त्र तब कहा जायेगा जब वह उत्पीड़न, अनुचित दबाव, कपट, मिथ्यावरण अथवा भूल से प्रभावित न हो जहाँ किसी पक्षकार की सहमति स्वतन्त्र नहीं होती वहाँ उस पक्षकार के विकल्प पर संविदा शून्यकरणीय होती है।


    दृष्टांत :


    'अ', 'ब' को गोली से मारने की धमकी देता है यदि ब ने उसे ₹2,000 नहीं दिए. ब ऐसा करने को सहमत हो जाता है। यहाँ करार उत्पीड़न से प्रभावित है और ब के विकल्प पर शून्यकरणीय है।


    1. तीसरा तत्व एक वैध संविदा के निर्माण हेतु पक्षकारों की क्षमता है। एक व्यक्ति की क्षमता या अक्षमता का निर्धारण करने के लिये विभिन्न पहलुओं पर गौर करना होगा। संविदा अधिनियम की धारा 11 इस मुद्दे पर प्रावधान करते हुए स्पष्ट करती है कि एक व्यक्ति


    (a) जिसने वयस्कता की आयु प्राप्त नहीं की है

    (b) जो स्वस्थ मस्तिष्क का नहीं है और


    (c) किसी विधि के अन्तर्गत जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने के योग्य नहीं है, को किसी संविदा में शामिल होने के लिये अक्षम माना जाना चाहिए। विधि ऐसे व्यक्ति को संविदा में सम्मिलित होना निषेध करती है जो (a) अवयस्क हो (b) अस्वस्थचित्त हो (जब यह स्वस्थ चित्त का हो उसे छोड़कर) और (c) ऐसा व्यक्ति जो संविदा में शामिल होने के लिए अन्य रूप से अयोग्य हो जैसे विदेशी शत्रु दिवालिया, दोषसिद्ध इत्यादि ।


    2. चतुर्थ तत्व विधिपूर्ण प्रतिफल की विद्यमानता है। सामान्यतया प्रतिफल का अर्थ है किसी कार्य को करने या न करने के बदले मुआवजा इसे क्विड प्रो क्या (तत्प्रतित) या कुछ के बदले अन्य कोई चीज वापस करने के रूप में संदर्भित किया जा सकता है ऐसा प्रतिफल एक विधिपूर्ण प्रतिफल होना चाहिए।


    उदाहरण: 'अ' 'ब' को अपनी पुस्तक र 100 में बेचने के लिये सहमत होता है। यहाँ ब का ₹ 100 अदा करने का वचन 'अ' के अपना पुस्तक बेचने के वचन के बदले प्रतिफल है और 'अ' का पुस्तक बेचने का वचन 'ब' के ₹ 100 अदा करने के वचन के बदले प्रतिफल है।


    3. अंतिम तत्व संविदा के लिये यह निर्धारित करता है कि यह ऐसे प्रकृति की नहीं होनी चाहिए जिसे विधि ने अवैध या शून्य घोषित कर रखा हो अवैध करार के होते हैं जिन्हें विधि द्वारा स्पष्ट या विवक्षित रूप से निषेधित कर दिया गया हो शून्य करार उनमें से एक है जिसका कोई विधिक प्रभाव नहीं होता।


    उदाहरणस्वरूप जान से मारने की धमकी देना या अपमानसूचक बयान को प्रकाशित करना या लोकनीति के विरुद्ध करार करना अवैध प्रकृति का है। इसी प्रकार ऐसा कोई करार जो किसी व्यापार, विवाह या विधिक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करने के लिए हो, शून्य करार के अच्छे उदाहरण है।

    Post a Comment

    0 Comments
    Post a Comment (0)

     


     


    To Top