Aristotle's Views on Justice // अरस्तु न्याय सम्बन्धी विचार // Jurisprudence// Political Thought//

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 न्याय सम्बन्धी विचार

(Views on Justice)


अरस्तू ने अपनी न्याय सम्बन्धी धारणा का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ 'रेटोरिक' (Rhetoric) में किया है। अरस्तू की न्याय सम्बन्धी धारणा प्लेटो की ही भाँति यूनानी न्याय की धारणा से प्रभावित है। यूनानी विचारक न्याय को राज्य का ही नहीं बल्कि समाज और व्यक्ति का भी आवश्यक गुण मानते हैं। उनके लिए न्याय वैधानिक सम्बन्धों की वस्तु होने के साथ-साथ नैतिक सम्बन्धों और आचरण की वस्तु भी है। इसलिए अरस्तू का न्याय का अर्थ और क्षेत्र आधुनिक युग में प्रचलित न्याय के अर्थ व क्षेत्र से व्यापक है।


न्याय का अर्थ (Meaning of Justice)


अरस्तू ने न्याय का अर्थ सद्‌गुण और उसके व्यावहारिक प्रयोग के रूप में ग्रहण किया है। विवेकी होना सद्गुण है परन्तु जब यह सद्‌गुण विवेकपूर्ण आचरण में परिणत होता है तो न्याय की उत्पत्ति होती है। अरस्तू के अनुसार "विवेकी होना सद्गुण है, परन्तु दूसरों के साथ विवेकपूर्ण आचरण करना न्याय है।" अरस्तू के अनुसार न्याय अन्य सद्‌गुणों से श्रेष्ठ है। अरस्तू के विचार में न्याय एक ऐसा सदगुण है जिसका अनुसरण सभी अन्य सद्‌गुण करते हैं। अतः न्याय एक ऐसा सामाजिक गुण है जिसमें सारे अन्य सद्गुण समा जाते हैं। प्रो. बार्कर के अनुसार "अरस्तु के लिए न्याय कानूनी न्याय से अधिक है। इसमें कुछ नैतिक विचार शामिल है जो हमार साधुता शब्द में निहित है।" इस प्रकार न्याय राजनीतिक समुदाय का एक नितान्त आवश्यक गुण है। न्याय की उपस्थिति राज्य को विकाग्रस्त होने से बचाती है और राजनीतिक जीवन को स्वस्थ एवं कल्याणकारी बनाती है।


न्याय के प्रकार


(Kinds of Justice)


अरस्तू ने अपने ग्रन्थ 'एथिक्स' (Ethics) में न्याय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उसके दो प्रकार बताए हैं:


1 . सामान्य न्याय (General Justice)


2. विशिष्ट न्याय (Particular Jusitce)


सामान्य न्याय सम्पूर्ण अच्छाई का नाम है। इसमें सब सद्गुण और साधुता (Righteousness) का समावेश है। अरस्तू ने Ethics' की पाँचवीं पुस्तक में लिखा है "सामान्य न्याय सम्पूर्ण अच्छाई है। यह पूर्णरूपेण सम्पूर्ण अच्छाई है क्योंकि यह सम्पूर्ण अच्छाई का अभ्यास है सम्पूर्ण इस अर्थ में कि इससे युक्त व्यक्ति अपनी अच्छाई का अभ्यास न केवल अपने लिए करता है, बल्कि पड़ोसियों के साथ भी वह इसका प्रयोग करता है।


विशिष्ट न्याय सामान्य न्याय का ही अंग है। यह सम्पूर्ण अच्छाई का एक पहलू है जिसकी उपस्थिति मनुष्य को अन्य लोगों के साथ उचित एवं सामान्य व्यवहार करने की प्रेरणा देती है। इसके कारण व्यक्ति समभाव या समता के साथ व्यवहार करता है। इस प्रकार यह न्याय नितान्त सीमित है। यह मात्र सामान्य न्याय के उस अंश का द्योतक है जिसके रहने से एक व्यक्ति दूसरों के साथ उचित व्यवहार करता है। विशिष्ट न्याय सामाजिक व्यवहार संहिता का प्रतिरूप है। विशिष्ट न्याय से युक्त व्यक्ति यह होता है जो श्रेष्ठ कानून का समुचित पालन करता है और इस प्रकार समाज के सन्दर्भ में अपने लिए उचित मात्रा से अधिक सुखों की माँग नहीं करता। अरस्तू ने विशिष्ट न्याय को दो भागों में बाँटा है


(क) वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice)


(ख) सुधारात्मक न्याय (Corrective Justice)


वितरणात्मक न्याय से अभिप्राय है कि राज्य अपने नागरिकों में राजनीतिक पर्दा, सम्मानर्ना तथा अन्य लाभों और पुरस्कारों का बैटवारा या वितरण न्यायपूर्ण रीति से करे। परन्तु यह वितरण समानता के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता और क्षमता के आधार पर होना चाहिए। अरस्तू ने अपनी पुस्तक 'पोलिटिक्स' में वितरक न्याय पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि मानव प्रकृतिवश असमान है, उनकी योग्यताएँ और क्षमताएँ भिन्न-भिन्न होती है। अतः जिस मात्रा में कोई नागरिक अपना योगदान देता है उसी अनुपात में उसे पद, स्थान या सम्मान प्राप्त होना चाहिए। अरस्तू का मानना है कि वितरणात्मक न्याय असमानता का अन्त करता है और राज्य को स्थायित्व प्रदान करता है। यदि उच्च पदों पर किसी वर्ग विशेष का अधिकार हो तो राज्य असन्तोष, संघर्ष और क्रान्ति को जन्म देगा। इसलिए राज्य में सुख-सम द्धि व स्थायित्व कायम रखने के लिए आनुपातिक या वितरणात्मक न्याय जरूरी है। राज्य में पदों का वितरण जन्म, धन, स्वतन्त्रता और समानता के आधार पर नहीं होना चाहिए बल्कि सद्‌गुर्णो के आधार पर होना चाहिए। थियोडोर गोमपर्ज ने वितरणात्मक न्याय के बारे में कहा है- "आनुपातिक न्याय प्रत्येक का उसकी योग्यता और पात्रता के अनुसार भाग निश्चित करता है।" यह नागरिकों में पूर्ण समानता की बजाय आनुपातिक समानता की स्थापना करता है। इस प्रकार आनुपातिक समानता के आधार पर वितरण करना ही वितरक न्याय है।


सुधारात्मक न्याय का सम्बन्ध नागरिकों के पारस्परिक सम्बन्धों से है। इसका मूल उद्देश्य नागरिकों के जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा करना है अर्थात् व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली भ्रष्टताओं को सुधारना है। अरस्तू ने इस न्याय का उल्लेख अपनी पुस्तक 'Ethics' में किया है। उसने कहा है कि इसका क्षेत्र दीवानी और फौजदारी दोनों प्रकार के मामलों एवं ऐच्छिक व अनैच्छिक व्यवहारों तक फैला हुआ है। इस आधार पर सुधारात्मक न्याय के दो उपभेद ऐच्छिक व अनैच्छिक सुधारात्मक न्याया है। ऐच्छिक सुधारात्मक न्याय का सम्बन्ध सम्पत्ति सम्बन्धी समझौतों से होता है। यदि इस समझौते को कोई नागरिक तोड़ता है तो उसे न्यायालय दण्डित करता है और पीड़ित पक्ष को मुआवजा दिलाता है। लेकिन अनैच्छिक न्याय का सम्बन्ध धोखा, मारपीट, चोरी, डकैती, हत्या आदि से सम्बन्धित अपराधों से होता है। राज्य के न्यायालय अपराधी को दण्ड देते हैं। इसका सम्बन्ध फौजदारी मुकद्दमों से है जबकि ऐच्छिक का दीवानी झगड़ों से है। अतः सुधारात्मक न्याय का सम्बन्ध राज्य का सम्पूर्ण दण्ड विधान है जिसको न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है।


निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि अरस्तू की सुधारात्मक न्याय की अवधारणा का महत्त्व आज भी है। आज भी प्रत्येक देश का शासक नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है और उल्लंघन करने वालों को सजा देता है। वर्तमान कल्याणकारी राज्य में यह आवश्यक है कि उच्च शासकीय पद और पुरस्कार योग्यता के आधार पर बॉटे जाएँ ताकि नागरिकों को सामाजिक न्याय प्राप्त हो सके और राज्य में स्थायित्व व एकता कायम रह सके। इस प्रकार अरस्तू न्याय के वितरणात्मक रूप द्वारा समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है जिससे राज्य का स्थायित्व बना रह सके।



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यह लेख  लखनऊ यूनिवर्सिटी , लखनऊ से बी.ए एल.एल.बी कर रहे छात्र  Justin Marya द्वारा  कई वेबसाइट की मदद से लिखा गया है। 

This article has been written by Justin Marya, a student of BA LLB from Lucknow University, Lucknow with the help of various websites.

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