Analytical School Of Jurisprudence// विश्लेषणात्मक विचारधारा// Jurisprudence//

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 "विधिशास्त्र" एवं "विधि" की संकल्पनाओं का निम्नलिखित विचारधारा के विधिशास्त्रियों ने व्याख्या प्रस्तुत किया है-


(1) विश्लेषणात्मक विचारधारा


(2) ऐतिहासिक विचारधारा


(3) समाजशास्त्रीय विचारधारा


(4) यथार्थवादी विचारधारा


(5) विधि के विशुद्ध सिद्धांत (वियना विचारधारा)


(6) प्राकृतिक विधि


विश्लेषणात्मक विचारधारा (Analytical School)


विश्लेषणात्मक विचारधारा का मुख्य प्रवर्तक जॉन ऑस्टिन (1790-1859) को माना जाता है। आंग्ल विधिशास्त्र के जनक (Father of English Jurisprudence) के नाम से विख्यात ऑस्टिन ने जर्मनी से रोमन विधि के वैज्ञानिक निरूपण का अध्ययन करने के पश्चात आंग्ल विधि का भी वैज्ञानिक विन्यास प्रस्तुत किया। ऑस्टिन ने अपने पहले व्याख्यान "द प्रॉविंस ऑफ जूरिस्प्रूडेंस डिटरमिंड" में विधि की प्रकृति और परिधि का विवेचन किया और "ए प्ली फॉर कॉन्स्टीट्यूशन" नामक कृति में 'विधिशास्त्र' पर व्यापक चर्चा की, जो वास्तव में 'ग्रे' की पुस्तक "ऑन पार्लियामेंटरी गवर्नमेंट" का उत्तर था।


ऑस्टिन ने विधिशास्त्र के अध्ययन का विषय-क्षेत्र केवल विध्यात्मक विधि (Positive law) को बनाया और इसके अध्ययन की रीति में 'विश्लेषणात्मक रीति" को अपनाया। इसीलिए विधिशास्त्र की इस विचारधारा को विध्यात्मवाद, विश्लेषणात्मक, विश्लेषणात्मक विध्यात्मवाद तथा प्रो. एलेन के शब्दों में "आज्ञात्मक विचारधारा" (Imperative School) भी कहते हैं।

ऑस्टिन ने अपनी विधिक संकल्पना इस बात पर केंद्रित की है कि "केवल विध्यात्मक विधियां ही विधिशास्त्र की उचित विषय- वस्तु हैं"। पुनः विधि को ऑस्टिन ने दो वर्गों में विभाजित किया-


(i) दैवी विधियां ईश्वर द्वारा मानव के लिए निर्मित विधियां ।


(ii) मानव विधियां मनुष्य द्वारा मनुष्य के लिए निर्मित विधियां।


ऑस्टिन ने मानव विधियों को भी दो भागों में विभक्त किया है-


(1) विध्यात्मक विधियां - ऐसी विधियां जो राजनीतिक रूप में वरिष्ठ द्वारा अपनी हैसियत में अथवा राजनीतिक रूप में वरिष्ठ न होने वाले व्यक्तियों द्वारा उन्हें प्रदत्त विधिक प्राधिकार के अधीन बनाई जाती हैं और केवल यही विधियां ही विधिशास्त्र की उचित विषय-वस्तु हैं। जैसे- संप्रभु का आदेश।


(2) अन्य विधियां-उपर्युक्त के सिवाय अन्य विधियों को ऑस्टिन ने इस श्रेणी में रखते हुए उन्हें लाक्षणिक रूप में विधि की संज्ञा दी है, जैसे- अंतरराष्ट्रीय विधि, फैशन अथवा सम्मान


संबंधी विधियां। इन्हें अनुचित तौर पर विधि कहा गया है।


ऑस्टिन का 'विधिशास्त्र' इस केंद्र बिंदु पर केंद्रित है कि विधि संप्रभु का समादेश है...... विधिशास्त्र का विषय विध्यात्मक विधि, जिसे सहज में और कड़ाई से ऐसा कहा जाता है; अथवा राजनीतिक वरिष्ठों द्वारा राजनीतिक अवरों के लिए बनाई गई विधि है, जिसका पालन करना अवरों का कर्तव्य है और जिसकी अवज्ञा पर वे अनुशास्ति के भागी होंगे। अतः ऑस्टिन की विधिशास्त्रीय अवधारणा में तीन प्रमुख तत्व अंतर्निहित माने जाते हैं-


(1) समादेश (Command)


(2) कर्तव्य (Duty)


(3) अनुशास्ति (Sanction)


अर्थात् प्रत्येक विधि एक समादेश है, जो एक कर्तव्य अधिरोपित करता है, जो अनुशास्ति द्वारा प्रवृत्त कराया जाता है। अतः प्रत्येक समादेश विधि नहीं होगा अपितु केवल वही सामान्य समादेश ही विधि है, जो आचरण विधा को बाध्य बनाता है। ऑस्टिन ने समादेश के तीन अपवाद बताए, जो समादेश न होते हुए भी विधिशास्त्र की विषय-वस्तु माने जाते हैं- 

(i) घोषणात्मक विधियां अथवा स्पष्टीकारक विधियां


(ii) निरसन हेतु निर्मित विधियां


(iii) अपूर्ण बाध्यता वाली विधियां



ऑस्टिन का स्पष्ट मत है कि विधि का आधार वरिष्ठ (संप्रभु) की शक्ति है न कि आचारशास्त्र (Ethics) अथवा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice) और चूंकि ऑस्टिन ने विश्लेषण को विधिशास्त्र का मुख्य साधन माना है, इसलिए इसे विश्लेषणात्मक विचारधारा का भी नाम दिया गया है, जिसका मूल मंत्र यह है कि विधि का सावधानी से अध्ययन और विश्लेषण किया जाना चाहिए और उसमें अंतर्भूत सिद्धांतों को निकाला जाना चाहिए। ऑस्टिन, हॉब्स की संप्रभुता की विधिक अवधारणा से प्रभावित रहे, जिसका समर्थन बर्कलैंड ने भी किया। यद्यपि ऑस्टिन के पूर्ववर्तीकाल के विधिशास्त्रियों ने ऑस्टिन की विधिशास्त्रीय विचारधारा की आलोचनाएं की हैं, किंतु यह भी सत्य है कि ऑस्टिन ने अपने उत्तरवर्ती विधिशास्त्रियों यथा- जर्मी बेंथम, हॉलैंड, सामंड, एलेन, केल्सन एवं हार्ट आदि को विधि संबंधी अवधारणा पर बहस के लिए मंच प्रदान किया। ऑस्टिन की कृति "प्रॉविंस ऑफ जूरिस्प्रूडेंस डिटरमिंड" आज भी विधिशास्त्र की एक महान कृति मानी जाती है। इसीलिए एलेन ने ऑस्टिन के बारे में कहा है कि 'ऑस्टिन विधिशास्त्र में ताड़ का वृक्ष हैं' और इनकी विचारधारा आदेशात्मक है। ऑस्टिन के मुख्य आलोचक ओलिवर क्रोना ने भी ऑस्टिन को आधुनिक विध्यात्मक चिंतन का अग्रदूत माना है।


ऑस्टिन की विचारधारा की इस बात पर आलोचना की गई कि संप्रभु की विद्यमानता सर्वव्यापी नहीं है और यह परिवर्तित होती रहती है। अतः समादेश का सिद्धांत मान्य नहीं है क्योंकि यह एक कृत्रिम विधि है और केवल सभ्य समाज पर ही लागू होती है, जिसमें रूढ़ियों, अंतरराष्ट्रीय विधियों, विशेषाधिकार प्रदान करने वाली विधियों, पूर्वनिर्णयों (न्यायाधीश निर्मित विधियों), कन्वेंशनों आदि की उपेक्षा की गई है, जो कि किसी न किसी रूप में विधि के रूप में आज भी मान्य होते हैं और यह भी कि केवल अनुशास्ति ही विधि-अनुपालन का एकमात्र साधन नहीं है।


परिणामतः विश्लेषणात्मक विचारधारा के उत्तरवर्ती विधिशास्त्रियों, जिनमें जर्मी बेंथम, ग्रे, सामंड, हॉलैंड, हार्ट,एलेन और केल्सन आदि मुख्य हैं, ने इस विचारधारा को और अधिक स्पष्ट, उन्नत और विकसित किया, जिसके कारण विधि की यथार्थवादी विचारधारा (Realist School) और विधि के विशुद्ध सिद्धांत (Pure theory of law) जैसी विधिशास्त्रीय विचारधाराओं का मार्ग प्रशस्त हुआ।


विधि की विश्लेषणात्मक शाखा के प्रवर्तकों में से एक ब्रिटिश विधिशास्त्री जर्मी बेंथम ने राजनैतिक एवं नैतिक दोनों क्षेत्रों में उपयोगितावादी सिद्धांत लागू करते हुए उपयोगिता को सुख का पर्यायवाची माना और "अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख" (Greatest Happiness of the Greatest Numbers) की अवधारणा प्रदान की। इनकी कृति "द लिमिट्स ऑफ जूरिस्प्रूडेंस डिफाइंड" में विधि का उद्देश्य 'अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख' को बताया गया है। इन्होंने विधिशास्त्र को दो भागों में विभाजित किया-


(i) व्याख्यात्मक-प्राधिकारिक (स्थानीय व सार्वभौमिक) व अप्राधिकारिक।


(ii) निश्चयात्मक या मूल्यांकनात्मक


इनके सिद्धांत को 'उपयोगितावाद का सिद्धांत 'अथवा 'उपयोगितावादी व्यक्तिवाद' की संज्ञा दी जाती है।


इस विचारधारा के एक अन्य विधिशास्त्री एच.एल.ए. हार्ट ने विधिशास्त्र को नियमों की एक व्यवस्था मानते हुए निश्चयात्मक विधि को न्याय तथा नैतिकता से संयुक्त माना है। अपनी कृति "कॉन्सेप्ट ऑफ लॉ" में हार्ट ने विधि को प्रमुख एवं गौण नियमों का योग के रूप में व्याख्यायित किया है और ऑस्टिन के मत के विपरीत यह मत व्यक्त किया है कि विधि एवं नैतिकता में घनिष्ठ संबंध होता है तथा विधि का अधिरचनावादी दृष्टिकोण समादेश, अनुशास्ति एवं संप्रभुता की त्रिवेणी है, किंतु विधि में बाध्यता, प्रपीड़न तथा धमकी निहित होती है। इनकी विचारधारा को विध्यात्मवाद के नाम से जाना जाता है।


सामंड ने विधिशास्त्र को तीन भागों में विभाजित किया-


(1) विश्लेषणात्मक, (2) ऐतिहासिक और (3) नैतिकविधि 


सामंड ने विधि के संहिताकरण पर बल देते हुए कहा कि समस्त विधि संग्रह को अधिनियमित विधि के रूप में बदलने की प्रक्रिया ही संहिताकरण है। सामंड का मानना है कि "न्यायालयों द्वारा मान्य और कार्यान्वित किए गए नियम विधि हैं।"


हॉलैंड ने विधिशास्त्र को रचनात्मक विधि का रीतिबद्ध विज्ञान माना है।

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यह लेख  लखनऊ यूनिवर्सिटी , लखनऊ से बी.ए एल.एल.बी कर रहे छात्र  Justin Marya द्वारा  कई वेबसाइट की मदद से लिखा गया है। 

This article has been written by Justin Marya, a student of BA LLB from Lucknow University, Lucknow with the help of various websites.

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