प्राकृतिक विधि (Natural Law)
'प्राकृतिक विधि' के सिद्धांतों ने विधिशास्त्र की अवधारणा को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। सामान्यतः प्राकृतिक विधि का तात्पर्य प्रकृति प्रदत्त विधि से माना जाता है। प्रकृति अर्थात वह सर्वोच्च शक्ति अथवा सत्ता जिसने प्रकृति की रचना (सृष्टि) की। निःसंदेह संकेत ईश्वरीय शक्ति अथवा सत्ता की ओर है। अतः परंपरागत रूप में प्राकृतिक विधि का अभिप्राय उन नियमों और सिद्धांतों से है जो किसी सर्वोच्च स्रोत से निःसृत हैं, किंतु जो कोई राजनीतिक या सांसारिक प्राधिकारी नहीं हैं। अतः विधिशास्त्रियों में इस प्रकार सृजित विधि को प्रकृति विधि (Law of Nature),दैवीय विधि (Divine Laws), नैतिक विधि (Moral Law), प्राकृतिक विधि (Natural Law), सार्वभौमिक विधि (Universal Law), ईश्वरीय विधि (Law of God) और अलिखित विधि (Unwritten Law) इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। प्राकृतिक विधि को 'जस नेचुरले' (Jus naturale) भी कहा जाता है, जिसने विश्व की प्राचीनतम विधिक प्रणाली से लेकर मध्यकालीन और आधुनिक विधिक प्रणालियों को भी न केवल प्रभावित किया बल्कि निरंतर अध्ययन, प्रभावविष्णुता और इसके आत्मसातीकरण का एक विषय रहा।
सारतः प्राकृतिक विधि के सिद्धांतों को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित करते हुए इसका अध्ययन किया जा सकता है-
(1) प्राचीन सिद्धांत,
(2) मध्यकालीन सिद्धांत,
(3) पुनर्जागरण काल के सिद्धांत, और
(4) आधुनिक सिद्धांत।
1. प्राचीन सिद्धांत
ऐसा माना जाता है कि 'प्राकृतिक विधि' का जन्म 'यूनान' में हुआ। सुकरात, अरस्तू, स्टोइक आदि इस काल के मुख्य विचारक हैं। भारत की प्राचीन हिंदू विधि प्रणाली और अंधकाल (Dark Ages) की अवधारणा को इसी सिद्धांत से प्रेरित माना जाता है।
सुकरात (470-399 ई. पूर्व) का मानना है कि प्राकृतिक विधि सार्वभौमिक एवं अपरिवर्तनशील होती है। यह बाध्यकारी है। मानव अंतर्दृष्टि विधि का आधार है। भौतिक विधि की भांति एक नैतिक विधि भी है। अंतर्दृष्टि की यह प्रेरणा होती है कि उसका पालन किया जाए। उनके शिष्य प्लेटो ने भी मानव अंतर्दृष्टि की इस अवधारणा का समर्थन किया कि यह व्यक्ति की अच्छाई और बुराई में भेद करती है तथा अच्छाई के अनुपालन के लिए प्रेरित करती है। रिपब्लिक इनकी मुख्य कृति है, जिसमें इन्होंने आदर्श राज्य की कल्पना की है।
अरस्तू ने भी मानव को ईश्वरीय सृष्टि का अंग मानते हुए उसके सक्रिय युक्ति द्वारा इच्छानुपालन की बात दोहराई। अरस्तू के अनुसार, मनुष्य अपनी युक्ति के द्वारा न्याय के शाश्वत सिद्धांत का पता लगा सकता है और पता लगाई गई विधि ही प्राकृतिकविधि है। इस पर आधारित अवधारणा को बाद में काण्ट, हीगल, केल्सन और स्टैम्मलर आदि ने भी स्वीकार किया। इतना ही नहीं रोम के स्टोयकों ने भी अरस्तू के सिद्धांत को आधार बनाते हुए उसे एक नीतिशास्त्रीय सिद्धांत के रूप में परिवर्तित किया, जिनका मुख्य आधार वाक्य यह रहा कि "यह मनुष्य का नैतिक कर्तव्य है कि वह अपने को 'प्रकृति विधि' जो सर्वव्यापी और सभी पर बाध्यकारी होती है, के अधीन रखें। इसी धारणा पर प्राचीन रोमन विधिशास्त्रियों ने विधि को तीन वर्गों में विभाजित किया-
(i) सिविल लॉ (Jus civile): रोमन नागरिकों के लिए।
(ii) राष्ट्रों की विधि (Jus jentium): सिविल और प्राकृतिक विधि का मिश्रण।
(iii) प्राकृतिक विधि (Jus naturale): रोमन एवं विदेशी नागरिकों के लिए।
इसी क्रम में हिंदू विधि प्रणाली को विश्व की प्राचीनतम विधि प्रणाली होने की संज्ञा दी जाती है, जिसने प्रारंभ से ही एक अति तर्कसंगत और सांगोपांग विधिक अवधारणा का प्रतिपादन किया किंतु देश काल और वातावरण की अस्थिरता ने इसे विकसित और सर्वव्यापी होने का अवसर प्रदान नहीं किया। इस प्रणाली का भी सार यही था कि विधि ईश्वर प्रदत्त है जिसे राजा के माध्यम से प्रवर्तित कराया जाता है। श्रुतियां और स्मृतियां प्राचीनतम विधि ग्रंथ हैं। मनु एवं नारद इस काल के प्रमुख विचारक हैं। अंधकाल में संत ऑगस्टाइन के विचारों ने भी प्राकृतिक विधि को संबल प्रदान किया जिनका मानना था कि विधि का उद्देश्य ईश्वर के साथ संयोग है। यदि मानवीय विधियां ईश्वर के सिद्धांतों के विपरीत हैं, तो उनकी अवहेलना की जानी चाहिए। वस्तुतः यह काल ईसाई पादरियों का था, जिन्होंने धर्म प्रधान विधिक अवधारणा को प्रमुखता प्रदान की।
2. मध्यकालीन सिद्धांत
तत्कालीन कैथोलिक दार्शनिकों और धर्मशास्त्रियों ने भी प्राकृतिक विधि को धार्मिक आधार प्रदान करते हुए तथा पूर्व के सिद्धांतों की कट्टरता को लचीला बनाते हुए नवीन सिद्धांत प्रस्तुत किए। इस काल के प्रमुख विचारक टॉमस एक्विनास हैं, जिन्होंने अरस्तू के विचारों का समर्थन करने के साथ विधि को निम्नरूपेण अभिव्यक्त किया "विधि युक्ति-उद्भूत नियम है जो सर्वमान्य के हित के लिए उसके द्वारा बनाया गया है जो समुदाय की संरक्षा करता है और प्रख्यापित किया गया है।"
एक्विनास ने विधि को चार वर्गों में विभाजित किया है-
(i) ईश्वरीय विधि।
(ii) प्राकृतिक विधि - मानव युक्ति से प्रकट एवं दैवीय विधि का भाग।
(iii) दैवीय विधि - धर्मशास्त्रों की विधि।
(iv) मानव विधियां ।
एक्विनास के अनुसार, विध्यात्मक विधि को धर्मग्रंथों की विधि के अनुरूप होना चाहिए और यह केवल उस सीमा तक ही विधिमान्य है जहां तक कि वह प्राकृतिक विधि के मेल में अर्थात् शाश्वत विधि (Eternal Law) के अनुरूप है। इस प्रकार एक्विनास ने अरस्तू के राजनीतिक दर्शन को ईसाई धर्म के साथ संयोजित करते हुए प्राकृतिक विधि का एक तर्कसंगत और लचीला सिद्धांत अपनाया। सारतः उसने विधि पर चर्च की सत्ता प्रत्यारोपित करते हुए स्पष्ट किया कि राजा की शक्तियां सीमित होती हैं और उन्हें सदैव ही दैवीय विधि के मार्गदर्शन के अधीन कार्य करना चाहिए। उसने मानव विधि के बारे में यह धारणा बनाई कि अनुचित होने पर भी मानव को इसका पालन करना चाहिए।
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3. पुनर्जागरण काल के सिद्धांत
पुनर्जागरण काल एक ऐसा समय था जब समाज के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में जन-जागृति का बोल-बाला था। परिणामतः विधिक क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा। सामाजिक परिवर्तन, वैज्ञानिक प्रगति एवं खोज, जनांदोलन आदि यूरोप की कुछ ऐसी परिस्थितियां थीं, जिनके कारण व्यक्ति की परंपरागत विचारधाराओं में अति उन्नयन हुआ और 'तर्कनावाद' ने इस युग की वाणी बनकर राष्ट्रीयता की भावना को चर्च के प्रभुत्व पर हावी कर दिया, जिसकी परिणति इस रूप में हुई कि समाज का आधार एक सामाजिक संविदा है। इसी क्रम में अपने जीवन और संपत्ति की रक्षा के लिए मानव ने जो करार किया वह "एका के समझौता" (Lactum Unions) के रूप में विख्यात हुआ जिसका प्रतिपादक इटली का मार्सिलियम था। ग्रोसियस, हॉब्स, जॉन लॉक, रूसो इस काल के मुख्य विचारक हैं।
ह्यूगो ग्रोसियस (1583-1645) ने भी माना है कि राजनीतिक समाज का आधार सामाजिक संविदा है और संप्रभु का यह कर्तव्य है कि वह नागरिक की रक्षा करे क्योंकि उसे शक्ति केवल इसी प्रयोजन के लिए दी गई है और वह (संप्रभु) भी प्राकृतिक विधि से आबद्ध है।......... इसी प्रकार प्रजा को भी संप्रभु के आदेश का पालन करना चाहिए भले ही वह कितना भी दुष्ट क्यों न हो। ग्रोसियस को अंतरराष्ट्रीय विधि का जन्मदाता भी माना जाता है। अपने सामाजिक संविदा के सिद्धांत के आधार पर उसने निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किए-
(i) सभी सरकारें बराबर हैं।
(ii) अपने विदेशी संबंधों में सभी सरकारें पूर्णतः स्वतंत्र हैं।
(iii) सरकारों के बीच दिए गए वचन आबद्धकर प्रकृति के होते हैं क्योंकि किसी वचन को पूरा करना प्राकृतिक विधि का एक सिद्धांत है।
इसी प्रकार हॉब्स (1588-1679) ने भी 'सामाजिक संविदा' को आधार बनाते हुए अपनी विधिक अवधारणा को निरंकुश शासनवाद (absolutism) पर केंद्रित किया।
हॉब्स का मानना है कि प्रजा को (चर्च को भी) संप्रभु के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं है और किसी भी स्थिति में संप्रभु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए, किंतु संप्रभु को भी प्राकृतिक विधि का पालन करना चाहिए। इस प्रकार हॉब्स ने व्यक्तिवाद, भौतिकवाद, उपयोगितावाद और निरंकुश शासनवाद इत्यादि पर अपने दृष्टिकोण को केंद्रित किया, जिससे ऑस्टिन सहित अनेक विधिशास्त्री प्रभावित हुए।
परवर्तीकाल में लॉक (1632-1704) ने प्राकृतिक विधि और 'सामाजिक संविदा' का नए ढंग से निर्वचन किया। लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था स्वर्णयुग थी, केवल संपत्ति असुरक्षित थी जिसकी संरक्षा के प्रयोजन के लिए ही मनुष्यों ने सामाजिक संविदा की जिसके अधीन उसने अपने सारे अधिकारों को नहीं अपितु उनके केवल एक भाग को ही अभ्यर्पित किया जिसमें व्यवस्था कायम रखने और प्रकृति की विधि को प्रवृत्त करने के लिए अपने प्राकृतिक अधिकार जैसे जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति का अधिकार को अपने पास सुरक्षित रखा।
लॉक ने स्पष्ट किया कि सरकार और विधि का प्रयोजन प्राकृतिक अधिकारों को कायम रखना और उनकी संरक्षा करना है। जब तक सरकार इस प्रयोजन की पूर्ति करती है, विधियां मान्य और आबद्धकर होती हैं, परंतु यदि वह ऐसा नहीं करती है तो उसकी विधियों की कोई मान्यता नहीं होती और उस सरकार को हटाया जा सकता है। इस प्रकार लॉक ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्ष लिया, जबकि हॉब्स ने सत्ता का समर्थन किया था। वस्तुतः लॉक का यह सिद्धांत ब्रिटेन की गौरवपूर्ण क्रांति (1688) से प्रेरित है जिसने वहां राजतंत्र के विरुद्ध संसदीय प्रजातंत्र को आमंत्रित किया और जो विश्व के लिए एक मार्गदर्शक भी बना।
लॉक के बाद रूसो (1721-1778) ने भी 'सामाजिक संविदा' और 'प्राकृतिक विधि' को मानव की 'सामान्य इच्छा' के परिप्रेक्ष्य में एक नया निर्वचन प्रस्तुत किया। रूसो के अनुसार 'सामाजिक संविदा' एक ऐतिहासिक तथ्य नहीं अपितु ' युक्ति' का एक काल्पनिक तथ्य है। इस संविदा के पूर्व भी मानव सुखी और स्वतंत्र था तथा उनके बीच में समता थी, जिसके परिरक्षण के लिए ही मानव ने सामाजिक संविदा को अपनाया जिसके लिए उन्होंने अपने अधिकारों (स्वतंत्रता और समता) को किसी एक व्यक्ति अर्थात संप्रभु को नहीं अपितु समुदाय, जो 'सामान्य इच्छा' (general will) का प्रतिनिधित्व करता है, को अभ्यर्पित किया।
रूसो ने स्पष्ट किया कि सामान्य इच्छा का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है क्योंकि ऐसा करने में वह अप्रत्यक्ष रूप से अपनी स्वयं की इच्छा का ही पालन करता है और राज्य का अस्तित्व स्वतंत्रता और समता की संरक्षा करने के लिए है। रूसो के अनुसार, राज्य और उसके द्वारा निर्मित विधियां दोनों ही सामान्य इच्छा के अधीन हैं, जिससे राज्य का सृजन होता है और यदि सरकार और विधियां सामान्य इच्छा के अनुरूप नहीं हैं तब उन्हें समाप्त कर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार लॉक जहां 'व्यक्ति' पर जोर देते हैं वहीं रूसो ने समुदाय की सामान्य इच्छा और मानव की स्वतंत्रता और समता पर बल दिया और इसे ही उन्होंने प्राकृतिक विधि का आधार माना, जिसने तत्कालीन देश काल में फ्रांसीसी और अमेरिकी क्रांति को प्रेरणा प्रदान करते हुए राष्ट्रवाद को अग्रसर किया। उसके सामान्य इच्छा के सिद्धांत को तो परवर्ती विधिशास्त्री फिटशे और हीगल ने 'देवरूप' की संज्ञा दी।
4. आधुनिक सिद्धांत
उन्नीसवीं शताब्दी में प्राकृतिक विधि के ' युक्ति' और 'तर्कनावाद' के विरुद्ध एक अतिप्रतिक्रिया प्रस्फुटित हो चुकी थी जिसका प्रभाव विधिक संकल्पना पर भी पड़ा जिसने अंततः एक समष्टिवादी दृष्टिकोण को जन्म दिया, किंतु बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ होते-ि होते प्राकृतिक विधि का सिद्धांत पुनर्जीवित हुआ। प्राकृतिक विधि के प्राचीन एवं आधुनिक चिंतन के बीच समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए इसकी प्रकृति एवं विस्तार की व्याख्या की गई। स्टैम्मलर, जे. कोहलर इत्यादि विधिशास्त्रियों की अवधारणा को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 'न्याय के सिद्धांत' इनकी मुख्य कृति है।
आर. स्टैम्मलर ने 'परिवर्तनीय तत्वयुक्त प्राकृतिक विधि' अवधारणा परिकल्पित करते हुए कहा है कि संपूर्ण विध्यात्मक विधि न्यायपूर्ण विधि के लिए एक प्रयास है। न्यायपूर्ण विधि वह है, जो सामाजिक जीवन के ढांचे में इच्छाओं या प्रयोजनों का एक सामंजस्य है, जो देश-काल के साथ परिवर्तित होता रहता है।
स्टैम्मलर का मानना है कि इच्छाओं और प्रयोजनों के ज्ञान के लिए जीवंत सामाजिक संसार के वास्तविक संपर्क में आना होगा, जो यह निर्णय करने में समर्थ बनाएगा कि कौन-सा प्रयोजन विधिक मान्यता प्राप्त करने के लिए योग्य है। इस प्रकार यह पता लगाया जा सकता है कि क्या न्यायपूर्ण है। स्टैम्मलर के अनुसार जो न्यायपूर्ण है, उसी को प्राप्त करना विधि का लक्ष्य होना चाहिए और इसके लिए प्रयास किया जाना चाहिए। हालांकि विधि न्यायपूर्णता के अनुरूप न होने पर भी मान्य होती है। इस प्रकार स्टैम्मलर ने प्राकृतिक विधि की परिवर्तनशील अवधारणा को विकसित किया।
कोहलर ने इस धारणा को और आगे बढ़ाते हुए मंतव्य व्यक्त किया कि विकास क्रम में समाज नैतिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से भी उन्नति करता है। अतः संस्कृति की, न कि भौतिकवाद की, अपेक्षाओं को विचार में लेते हुए विधि अपने प्रयोजनों की अच्छे ढंग से पूर्ति कर सकती है। कोहलर का मानना है कि कोई शाश्वत विधि नहीं है। गेनी, लीफर, फुलर, डेलवेकिहो आदि इस सिद्धांत के अन्य स मर्थक विधिशास्त्री हैं।
सारतः प्राकृतिक विधि की अवधारणा ने विभिन्न देश-काल में भिन्न-भिन्न होते हुए भी अपनी छाप विधि एवं विधिशास्त्र की लगभग प्रत्येक विचारधारा पर छोड़ी, जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसकी अवधारणा को अपनी विचारधारा में सम्मिलित किया। इंग्लैंड व अमेरिका की भांति भारत में भी 'प्राकृतिक विधि' के अनेक मूल तत्व विभिन्न विधियों में समाहित हैं। स्वयं प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत, संविदा कल्प, अपकृत्य में युक्तियुक्तता, न्याय, साम्य और शुद्ध अंतःकरण की अवधारणा प्राकृतिक विधि की ही देन है, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 311 में भी अवलोकित किया जा सकता है और जिसका उल्लेख उच्चतम न्यायालय ने ए.के. क्रैपक बनाम भारत संघ, AIR 1970 SC 150 के वाद में भी किया है, जिसे बाद में मेनका गांधी बनाम भारत संघ, AIR 1978 SC 597 के मामले में व्यापकता प्रदान की गई।
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यह लेख लखनऊ यूनिवर्सिटी , लखनऊ से बी.ए एल.एल.बी कर रहे छात्र Justin Marya द्वारा कई वेबसाइट की मदद से लिखा गया है।
This article has been written by Justin Marya, a student of BA LLB from Lucknow University, Lucknow with the help of various websites.
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